नवजात शिशु
धरा पर आता नवजात शिशु ,आकर अचंभित हो जाता है ।
कहाॅं कहाॅं कर विस्मित होता ,
फिर माता में ही खो जाता है ।।
पहचानता तो माॅं को भी नहीं ,
भूख लगे तो वह रो जाता है ।
दूध पीकर ही वह पेट भरता ,
पेट भरते ही वह सो जाता है ।।
जाड़ा गर्मी कुछ जानता नहीं ,
केवल ईश्वर का हो जाता है ।
वस्त्र में हो या हो वस्त्रविहीन ,
सारा ये श्रेय ईश को जाता है ।।
धूप में रखो या रखो छाॅंव में ,
ईश्वरीय प्रसाद ढो जाता है ।
शैशवकाल की शैशवावस्था ,
सबको यादें ये बो जाता है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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