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"तिमिर एवं उजाला

 "तिमिर एवं उजाला"

तिमिर क्यों घना चारों ओर यह छा रहा है,
संवेदनहीनता का साम्राज्य फैला हुआ है,
संस्कारविहीन समाज यह क्यों हो गया है।
उजाला क्यों हमको नजर नहीं आ रहा है।


लोगों के मन में नैतिकता का पूर्ण अभाव है,
हर कोई अपने स्वार्थ के पीछे भाग रहा है,
दूसरों के दुःख के प्रति कोई संवेदना नहीं है,
लोगों में केवल क्रोध और हिंसा का भाव है।


लोगों में प्यार, संवेदना, सौहार्द कहाँ गया?
देखो हर कोई मैं और मेरा में उलझा हुआ है,
धन और सत्ता के लिए सब कुछ कर रहा है,
मानवता का मानों नामों निशान मिट गया है।


बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दिए जा रहे हैं,
बड़ों को भी दायित्वों का अहसास नहीं है,
हर कोई रिश्तों का अब गला घोंटने लगा है,
सुख - शांति का कहीं नामोनिशान नहीं है।


क्या यही है हमारा भविष्य,
क्या यही है हमारा संसार,
क्या यही है हमारा समाज,
क्या यही है हमारा इंसान।


इस तिमिर को दूर कर उजाला लाना होगा,
संवेदनशील और संस्कारवान बनना होगा,
दूसरों प्रति दया - करुणा भाव जगाना होगा,
हमें इस हिंसा और घृणा को त्यागना होगा।


उजाला धरा पर अवश्य छायेगा एक दिन,
इस तिमिर को काटकर उजियाला आएगा,
मानवता एक बार फिर से विजयी होगी,
और संपूर्ण संसार में सुख - शांति आएगी।


हम सब मिलकर इस तिमिर को मिटाएंगे,
हम सब मिल एक अच्छा समाज बनाएंगे,
हम सब मिलकर इस मानवता को बचाएंगे,
और दुनिया को एक बेहतर जगह बनाएंगे।


स्वरचित एवं मौलिक
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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