मैं कौन हूॅं

मैं कौन हूॅं

अपनी ही धरा पर ,
अपने ही घर में ,
रहता मैं मौन हूॅं ।
समझ नहीं आता ,
आज यह हमको ,
मैं पूरा या पौन हूॅं ।
मातपिता पत्नी बच्चे ,
भरे पड़े मगर ,
लगता मैं गौन हूॅं ।
निराश नहीं होता मैं ,
निज सोचा करता ,
जैसे मैं ही डाॅन हूॅं ।
लंबा परिवार मैं लंबा ,
फिर भी लगता जैसे ,
मैं ही तो बौन हूॅं ।
विचार का हूॅं मैं नेक ,
खूब चलाता निज विवेक ,
हृदय से बड़ा लाॅन हूॅं ।
फिर भी बड़ी दुनिया में ,
पता नहीं चलता ,
मैं आखिर कौन हूॅं ।


पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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