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दूबों के होठों पर

दूबों के होठों पर

डॉ रामकृष्ण मिश्र
मोती -सी जल - बूँदे
तापित की पीड़ा
अनुराग से सँवारती
आत्म दीप बारतीं।।


धानों के गब्भे में
किलक रहा हो शायद
तृप्ति का मनोरथ जो
चहके खलिहान में ं।
छौटी सी आशा ले
गोरैये भी लहसें
लिखी जाएगी गाथा
दुहरे सम्मान में ं।।
आँचल से चाँदनी
दुलारती निहारती।।


एक बडे़ बूढे सा
हरसिंगार हँस देता
फूल हँसी के सारे
बिछ जाते मोद में ं
नयन पोछते अनगिन
विहग श्रेणियों के सुध
पसरे - पसरे लगते
खुले गगन गोद में ं।।
धरती अपने आँगन
ओस से खँगारती।।


जाने कैसे -कैसे
सपनों- से उगा रही
कुछ सीधी कुछ पिचकी
अनजानी थालियाँ ।
झमटाए पौधों में
हुलक रही हरी -हरी
वन बेरी, बचपन की
बजती है तालियाँ।।


समृद्धि की किरणें
दूर से पुकारतीं ।।
रामकृष्ण
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