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जनता की माया !!

जनता की माया !!

उम्र भर सताया, जताया
बताया कि तुम
न बुझे हुए आग हो
न दबे कुचलों के भाग हो
याद करो ओ दिन
एक चूल्हे की आग से
हो जाता था जीवित
पूरे गाँव के रसोई घर
बिना भेदभाव
बनते थे प्रेम के पकौड़े
वह आज मौन और गौण है।
एक झोपड़ी में लगी आग
जब जलाने को होता था
उद्यत पूरे गांव को
भरे पूरे कुनबे को
एक हुंकार
आग लगी है आग
जला रही है झोपड़ी
जल रहा समाज
सुनते ही आवाज
सजग हो जाता था समाज
देखते देखते ही बुझ जाती थी आग
पी जाते थे उस दावानल को
गाँव के लोग
एक झटके में बिना भेदभाव
वह बारूद हो गई है
और हम विवश हो कर
प्रतीक्षा में हैं राख बनने की
अरविन्द कुमार पाठक "निष्काम"
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