८वां अजूबा बना अंकोरवाट, मिला भारत को सम्मान
धर्म चिंतन और राष्ट्र चिंतन के केंद्र होने के कारण मंदिरों से प्राचीन काल से ही क्रांति का स्रोत प्रवाहित होता रहा है। यही कारण रहा कि जब सिकंदर का भारत पर आक्रमण हुआ तो क्रांति के इन केंद्रों से ऐसी धारा प्रवाहित हुई कि उसने चंद्रगुप्त और चाणक्य की जोड़ी के माध्यम से राष्ट्ररक्षा और धर्म रक्षा का अपना पुनीत दायित्व निर्वाह किया। जब मोहम्मद बिन कासिम आया तो देवलाचार्य ने उस समय की राजसत्ता पर विराजमान क्षत्रिय लोगों को झकझोर कर रख दिया था और उन्हें माउंट आबू पर एकत्र कर धर्म रक्षा और राष्ट्र रक्षा का की नई ऊर्जा से भर दिया था। यदि आगे के इतिहास को भी देखें तो हर हिंदू महायोद्धा के साथ एक न एक ऐसा आचार्य खड़ा है जिसने मंदिर संस्कृति का सही सदुपयोग करते हुए राष्ट्ररक्षा व धर्मरक्षा के अपने पवित्र दायित्व का निर्वाह किया।
हमने राष्ट्र को धर्म के अनुकूल बनाया और धर्म को राष्ट्र का मार्गदर्शक स्वीकार किया। सेकुलरिज्म के नाम पर आज धर्म को चाहे लोगों ने जितने अपशब्द कहे हों पर सच यह है कि प्राचीन काल से ही भारत में धर्म और राष्ट्र दोनों एक दूसरे के साथ अन्योन्याश्रित भाव से जुड़े रहे हैं। इसीलिए राष्ट्रधर्म जैसा शब्द एक साथ जुड़कर हमसे बहुत कुछ कह जाता है। भारत ने अपने राष्ट्र धर्म का निर्वाह करते हुए मंदिरों को अपनी संस्कृति में उचित स्थान और सम्मान प्रदान किया। राजनीति कभी भी तानाशाही ना दिखाए, और वह बेलगाम न हो जाए इसके लिए मंदिर हमारी प्रत्येक राजसत्ता की धर्मसंसद बने रहे। यही कारण रहा कि भारत के राजाओं ने मंदिर निर्माण पर विशेष ध्यान दिया। मंदिर निर्माण की यह योजना भारत के भीतर ही नहीं बल्कि भारत के बाहर भी जारी रही। जहां - जहां तक वृहत्तर भारत का विस्तार था, वहां वहां तक मंदिर संस्कृति अपना रंग बिखेर रही थी।
भारत ने अपनी इसी मंदिर संस्कृति के अंतर्गत कंबोडिया में संसार का सबसे बड़ा मंदिर बनाया। इस मंदिर को अंकोरवाट मंदिर के रूप में जाना जाता है। मंदिर का इतिहास 800 वर्ष से भी अधिक पुराना बताया जाता है। इस बात को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि 800 वर्ष पहले तक भी हम संसार के विभिन्न कोनों में वैदिक संस्कृति के प्रचार प्रसार के कार्य में लगे हुए थे । हमारा सनातन संसार के अनेक अंचलों में लोगों का मार्गदर्शन कर रहा था। जिस कालखंड को हम भारत के निराशाजनक ढंग से लिखे गए इतिहास के माध्यम से अपने लिए शर्म का विषय मानते हैं उसे काल में अंकोरवाट का निर्माण होना हमारे गर्व और गौरव की कहानी कह रहा है।
हम सबके लिए यह बहुत ही गर्व का विषय है कि भारत की सत्य सनातन वैदिक परंपरा के अंतर्गत निर्मित किए गए अंकोरवाट मंदिर को संसार का आठवां अजूबा करार दिया गया है। निश्चित रूप से भारत की सनातन वैदिक संस्कृति के प्रतीक इन मंदिरों के प्रति यदि संसार का ध्यान इस समय जा रहा है तो इसमें वर्तमान भारतीय नेतृत्व का विशेष योगदान है। यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है । विष्णु परमपिता परमेश्वर का ही एक नाम है। परमपिता परमेश्वर की वह शक्ति जो पिता के समान अपनी सभी संतानों का अर्थात सभी प्राणधारियों का पालन पोषण करती है, उसे विष्णु कहते हैं। यह मंदिर कंबोडिया के अकोरयोम में स्थित है। इसे प्राचीन काल में यशोधरपुर के नाम से भी जाना जाता था। इस मंदिर का निर्माण हिंदू सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय ने अपने शासनकाल में 1120 से 1153 ई0 के बीच करवाया था। इस मंदिर को यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट सूची में सम्मिलित कर संसार के सबसे विशाल हिंदू मंदिर के रूप में सम्मान दिया गया है। इस मंदिर की दीवारों पर विभिन्न हिंदू ग्रंथो में उल्लेखित विभिन्न प्रकार के प्रसंगों का विस्तार से चित्रण करते हुए वैदिक सनातन संस्कृति के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की गई है। जिसे देखने से ऐसा लगता है कि हम किसी बाहरी देश में खड़े न होकर भारत की ही किसी धर्म नगरी में खड़े हुए हैं। लगभग 500 एकड़ क्षेत्रफल में फैला हुआ यह मंदिर संसार का सबसे विशाल हिंदू मंदिर है। इसे कंबोडिया में मिकांग नदी के किनारे स्थित सिमरिप शहर में स्थापित किया गया है।
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर भारत की मंदिर संस्कृति के प्रति विशेष श्रद्धा का भाव रखते हैं। वह स्वयं उन सब चीजों में रुचि लेते हैं जिससे भारत का गौरव बढ़े। उन्होंने यह बात बिल्कुल सही कही है कि मोदी सरकार का पूरा ध्यान संसार में भारत की समृद्ध परंपराओं के निर्माण, पुनर्निर्माण और पुनर्स्थापना पर है। इतिहास का पहिया अब घूम रहा है। यह भारत का उदय है। दुनिया में भारतीय संस्कृति और विरासत को उचित स्थान मिले, इसे लेकर केंद्र की मोदी सरकार प्रतिबद्ध है।
भारत के सनातन धर्म के संदेश को विश्वव्यापी मान्यता तभी प्राप्त हो सकती है जब उसके प्रतीकों और उनके पीछे के वैज्ञानिक कारण को समझने का प्रयास किया जाएगा। कांग्रेसी सरकारों के जमाने में भारत के सनातन को एक असाध्य रोग से बीमार व्यक्ति के रूप में घोषित कर दिया गया था। जिससे भारतीय सांस्कृतिक परंपराएं मरती जा रही थीं। अब इन परंपराओं को संजीवनी मिलती हुए दिखाई दे रही है। इस संजीवनी को देने के अपने राष्ट्र धर्म का निर्वाह करते हुए केंद्र की मोदी सरकार ने कंबोडिया स्थित अंकोरवाट मंदिर के जीर्णोद्धार पर ध्यान दिया । जिसके परिणामस्वरुप भारत को बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त हुई कि इस संसार के आठवें अजूबे के रूप में सम्मान प्राप्त हो गया।
निश्चित रूप से अब भारत के बाहर के अनेक शोधार्थियों को भारत के बारे में रुचि पैदा होगी। वह समझेंगे कि अंकोरवाट का इतिहास क्या है ? और इसे किन परिस्थितियों में कब किस शासक ने यहां किस उद्देश्य से प्रेरित होकर स्थापित किया था?
वास्तव में किसी भी देश की सरकारों का दायित्व केवल राजसत्ता के माध्यम से लोगों पर शासन करना या उन्हें किसी एक दिशा विशेष में हांकना ही नहीं होता है, उनका सबसे बड़ा दायित्व अपनी सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वाह करते हुए उनको संरक्षण देना भी होता है। धर्मनिरपेक्षता जैसी उधारी मानसिकता, सोच और राजनीतिक दर्शन के चलते हमने जिस प्रकार अपनी सांस्कृतिक समृद्ध परंपराओं की उपेक्षा की , वह राष्ट्र के साथ किया गया सबसे बड़ा द्रोह था। स्वतंत्रता के बाद के इतिहास का यह एक मनोरंजक तथ्य है कि सत्ताधीश लोग राष्ट्रद्रोह करते रहे और जनता उनके राष्ट्रद्रोह के प्रति मौन साधे रही। अंकोरवाट जैसे ही उन अनेक धर्म स्थलों और ऐतिहासिक स्थलों , भवनों ,किलों आदि का जीर्णोद्धार करने का भारत को ठेका लेना चाहिए था जो उसके अतीत के गौरव को स्पष्ट करने में सक्षम रहे हैं और विश्व के विभिन्न देशों में यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं। पर इस ओर ध्यान नहीं दिया गया।
आज भी समय है कि हम अपने राष्ट्रीय एजेंडा में इन सब चीजों को सम्मिलित करें। इसमें दो राय नहीं है कि केंद्र की मोदी सरकार इस ओर ध्यान दे रही है। पर सरकार के इस कार्य के प्रति राष्ट्रवासियों का जनसमर्थन होना भी आवश्यक है। मंदिरों से निकलने वाला चिंतन राष्ट्र और समाज का कल्याण करता है। अंकोरवाट का यह सम्मान भारत का सम्मान माना जाना चाहिए।
जिस पर हर भारतीय को गर्व करने का पूरा अधिकार है।
( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
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