संगठन की पहचान: भ्रांत दृष्टियाँ

संगठन की पहचान: भ्रांत दृष्टियाँ

- प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
वस्तुओं, क्रियाओं और विचार को सम्यक दृष्टि से देखने पर भारतीय ज्ञान परंपरा बल देती है। क्योंकि यह अत्यंत प्राचीन परंपरा है। इसका अर्थ है कि इसे जीवन और जगत का विपुल और विराट अनुभव प्राप्त है। इसलिये भ्रातिंयों के कारण कितना भटकना पड़ता है और कितना कष्ट होता है, यह तथ्य भारत की स्मृति में सुरक्षित है। लोक में जाग्रत है।
दूसरी ओर यूरोप में ज्ञान की कोई प्राचीन परंपरा शेष नहीं है। यवन दार्शनिकों के द्वारा लिखित एक भी मूल शब्द कहीं उपलब्ध नहीं है। जो कुछ उपलब्ध है, वह यवन दर्शन के घोर विरोधी और शत्रु रहे क्रिश्चियन पादरियों द्वारा रचित गप्पों की उड़ान है। यूरोप के ईसाई जिसे स्वयं अंधकारयुग कहते हैं और अपनी लज्जा ढकतें हैं, वह तो अज्ञान का घोषित युग है ही। उसके बाद सारा ही ज्ञान वहाँ विगत 150 वर्षों में उन्होंने परिश्रमपूर्वक सृजित किया है। इसीलिये वस्तुओं, क्रियाओं और विचारों के विषय में उनकी सभी धारणायें बालसुलभ और मोटी-मोटी हैं। वे कामचलाऊ तो कभी-कभी होती हैं पर वास्तविक ज्ञान का उनसे कोई संबंध नहीं होता।
जैसे नेशन स्टेट। उन्होंने नेशन स्टेट विगत 150 वर्षों में विकसित किया। फिर उसे एक ‘पर्सन’ की तरह बरतने लगे और बताने लगे। नेशन स्टेट उनके लिये एक वास्तविक ‘एन्टिटी’ हो गया, वस्तु सत्ता हो गया। परन्तु इससे वह सचमुच वह कोई एक इकाई तो नहीं बन जाता? एक ही नेशन स्टेट में अर्थात लगभग 25 से 50 लाख की जनसंख्या वाली एक राजनैतिक इकाई में कम से कम एक दर्जन विचार प्रवाह वहाँ रहे हैं। जो परस्पर विरोधी रहे हैं। इधर 150 वर्षों में यह जनसंख्या बढ़कर 2 से 5 करोड़ तक हो गई है। तो विचारप्रवाहों की विविधता और संख्या भी बढ़ी है। जो भी विचारप्रवाह नेशनस्टेट की सत्ता पर कब्जा करता है, वह अपने ही विचारों को समस्त नेशनस्टेट का एकमात्र प्रतिनिधि विचार बताने लगता है। इससे विरोधियों से लड़ने और निपटने में सहायता मिलती है। परन्तु इससे सबसे अधिक तो सत्य को ढका जाता है। मूल रूप में यह एक क्रूर, नृशंस, बर्बर और अमानवीय प्रक्रिया है। स्वयं के मत के अतिरिक्त शेष सबका हनन है अर्थात घोर हिंसा है, विकराल हिंसा है। यही चल रहा है। इससे भिन्न अब तक कोई व्यापक प्रवाह नहीं उभरा है। यद्यपि प्रयास चल रहे हैं।
भारत में एंग्लो ईसाई शिक्षा के प्रभाव से नेशन स्टेट को एक इकाई मानने और बताने का बौद्धिक धंधा जम कर फैला हुआ है। करेले पर नीम चढ़ा यह है कि नेशन स्टेट को भारतीय भाषाओं में राष्ट्र कहकर भीषण भ्रम रचा गया है। नेशन स्टेट की राज्य सत्ता पर एकाधिकार की यह होड़ है। इसे ही राष्ट्र भावना बता दिया जाता है। स्पष्ट रूप से यह झूठ तो है ही, यह झूठ होने के कारण ही टिकाऊ नहीं है। इसका अर्थ है कि राष्ट्र के विखंडन का सबसे बड़ा कारण यही धंधा बनने वाला है। परंतु एंग्लो ईसाई शिक्षा के कारण इस धंधे से जुड़े सभी व्यापारियों में धंधे को लेकर सर्वानुमति है। अर्थात नेशन स्टेट को एक ‘पर्सन’ बताने पर तो सर्वानुमति है ही, उसे राष्ट्र कहने पर और फिर अपने समूह के विचार को ही राष्ट्र का एकमात्र सत्यविचार कहने पर भी सर्वानुमति बन गई है। यह विखंडन की दिशा है और भारत में विखंडन केवल इसलिये नहीं हो रहा है कि यहाँ परिपक्व हिन्दू समाज है, जिसके जनसाधारण में अभी भी विवेक जाग्रत है और वैविध्य का सत्य विदित है। परन्तु जैसे-जैसे आधुनिक शिक्षा व्यापक होती जायेगी, यह विवेक लुप्त होता जायेगा और तब विखंडन के खतरे बढ़ते जायेंगे। यूरोप की तरह अलग-अलग सबल जातियों के नेशन स्टेट बन जाने की संभावना तो है ही, घोर वैचारिक अराजकता की भी आशंका है। विश्वास है कि कोई भारतीय संस्कारों वाला तपस्वी समूह इस स्थिति को बचा सकेगा।
सम्यक दर्शन और सम्यक वर्णन की भारतीय परंपरा
इसके स्थान पर सम्यक दर्शन और सम्यक वर्णन की भारतीय परंपरा वस्तुओं, क्रियाओं और विचारों को सम्यक रूप से देखने पर बल देती है। अतः वह राष्ट्र की विविध धाराओं को और विविध विभूतियों के क्रियाकलापों को उनके नाम से ही जोड़कर देखती और बताती है। जैसे कहेंगे कि जवाहरलाल नेहरू ने तिब्बत चीन को दे दिया। यह नहीं कहेंगे कि हमने तिब्बत चीन को दे दिया।
इसी प्रकार कहेंगे कि कांग्रेस की कम्युनिज्म से प्रभावित धारा ने अमुक-अमुक काम किया और हिन्दू संस्कारों वाली धारा हार गई या पिट गई। इस तथ्य का यथावत वर्णन भारतीय दृष्टि करेगी।
राष्ट्र तो बहुत बड़ी इकाई है। संगठन आदि भी व्यक्तियों और मुखिया के आधार पर भिन्न-भिन्न चरित्र वाले होते रहते हैं और नितांत भिन्न कार्य करते देखे जाते हैं। मान लीजिये कि कांग्रेस के हिन्दू संस्कारों वाले लोग सत्ता के आंतरिक द्वंद्व में प्रबल होते तो कांग्रेस के नेतृत्व में ही भारत जाने कब का हिन्दू राष्ट्र हो चुका होता। पं. मदनमोहन मालवीय, राजर्षि पुरूषोत्तमदास टंडन या उनसे पहले लोकमान्य तिलक, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, रासबिहारी घोष, सत्येन्द्र प्रसंग सिंह, अंबिकाचन्द्र मजूमदार, सी. विजयराघवाचार्य, चितरंजन दास, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सुभाषचन्द्र बोस आदि जैसे नेता कांग्रेस में सत्तारूढ़ होते तो भारत का दृश्य भिन्न होता। परंतु 1940 में अबुलकलाम आजाद के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पुरूषोत्तमदास टंडन और आचार्य कृपलानी को छोड़ दें तो विगत 83 वर्षों में एक भी निष्ठावान हिन्दू कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं रहा है, श्री नरसिंहराव और जगजीवनराम के दो अपवाद छोड़कर जिन्हें कभी भी समस्त कांग्रेस का समर्थन नहीं प्राप्त था, आंशिक समर्थन ही सुलभ था। इस प्रकार नाम के लिये कांग्रेस पार्टी नाम की एक ही पार्टी शासन में रही परन्तु वस्तुतः उसके चरित्र में आकाश-पाताल का अंतर आता चला गया।
डॉ. राममनोहर लोहिया जितने बड़े विचारक थे और भारतीय संस्कारों से सम्पन्न थे, वैसे संस्कारों और प्रतिभावाला एक भी व्यक्ति लोहिया की धारा में नेतृत्व में नहीं आया। इसके कारण उतने उच्च विचारों वाला संगठन निकृष्ट कोटि के जातिवाद के दलदल में धंसता चला गया।
संघ, जनसंघ और भाजपा में भी संस्कारी और तपस्वी लोगों की भरमार है। परंतु कब कौन सी धारा प्रबल हो जायेगी, इस पर ही उसका भावी चरित्र निर्भर है। पुराने तपः प्रवाह की निरन्तरता में उसके भविष्य का पूर्वानुमान संभव नहीं है क्योंकि अब तक जो महत्वाकांक्षी और एकाधिकार वादी धारा दबी रही है, वह कब यूरोपीय किस्म के राष्ट्रवाद का आवरण लेकर उभर आये, कहा नहीं जा सकता। ‘दैवं चैवात्र पंचमं’ (गीता)। - प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
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