सदा रहो प्रभु के शरण में
आजीवन रहो पेट भरण में ,चाहे रहे तू जीवन मरण में ।
चाहे रहो तुम नेकी करण में ,
सदा रहो प्रभु के शरण में ।।
माता पिता गुरु औ शिक्षक ,
अग्रज सज्जनवृंद चरण में ।
सदा सबको शीश नवाओ ,
सदा रहो प्रभु के शरण में ।।
काला गोरा मन का वहम ,
मत जाओ तुम आभरण में ।
जीवन को तू नेक बना ले ,
सदा रहो प्रभु के शरण में ।।
सुंदर संस्कार जीवन ढालो ,
कूद जाओ प्रेम प्यार रण में ।
शिष्ट निष्ठा हथियार ले लो ,
सदा रहो प्रभु के शरण में ।।
किस अहंकार में डूबा बंदे ,
उबडूब करे तारण तरण में ।
जीवन नाम प्रभु को लिख ,
सदा रहो प्रभु के शरण में ।।
सारी माताएं बहनें हैं तेरी ,
बन जा कृष्ण चीरहरण में ।
हथेली बस चक्षुतारे बनोगे ,
सदा रहो प्रभु के शरण में ।।
विनाशकाले ईश बुद्धि हरते ,
मत लग तू बुद्धि क्षरण में ।
नेकनीयति रखो जीवन में ,
सदा रहो प्रभु के शरण में ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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