पाषाण मानव

पाषाण मानव

पाषाण बन गया है इन्सान,
बची नहीं हैं अब भावना,
स्वकेंद्रित हैं अब सब यहां,
बची हैं तो इच्छा - कामना।


प्रेम , करुणा , दया और क्षमा,
सब कुछ खो गया है मनुष्य से,
इंसा में केवल ही स्वार्थ है शेष,
वो अब मानवता का है अवशेष।


लोभ , घृणा , क्रोध , ईष्या , वैमनस्य,
अब घिरा हुआ चारों ओर से मनुष्य,
अब तो वह स्वयं भी नहीं पहचानता,
पाषाण बन चुका है यह नहीं मानता।


क्या पत्थर दिल बन चुके इंसानों की,
शिराओं में पुनः रक्त प्रवाह हो पायेगा,
प्रायः समाप्त हो चुकी इंसानियत को,
पुनर्जीवित क्या ये इंसा कर पायेगा ?


क्या यही है मानवता का सच,
क्या यही है इंसानों का भविष्य,
क्या फिर एक दिन हम जागेंगे,
और फिर से मानव बन पाएंगे ?


स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 
 पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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