जाति की गंगा में नाक दबा-दबाकर डुबकी लगाना

जाति की गंगा में नाक दबा-दबाकर डुबकी लगाना

- प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
नवशिक्षित हिन्दुओं की सबसे हास्यास्पद धारणा जाति को लेकर है। इस विषय में वैचारिक स्तर पर सब ईसाई मिशनरियों के राजनैतिक प्रोपेगंडा का निरीह शिकार बने हुये हैं। दूसरी ओर व्यावहारिक जीवन में सब जाति के सहज अंग के रूप में बरतते हैं। इस दोहरेपन के स्वरूप को समझना रोचक होगा।
ईसाई मिशनरी विस्तारवादियों को उनके उद्दंड और अज्ञानपूर्ण प्रोपेगंडा का शांत बौद्धिक उत्तर सर्वप्रथम ब्राह्मणों ने दिया। इसलिये पहले तो मलाबार में पहुँचे ईसाई पादरियों ने हिन्दुओं का संरक्षण पाकर फैलना शुरू किया। उसके बाद कुछ पादरी अपनेआप को यूरोपीय ब्राह्मण कहने लगे। जिससे कि समाज में सम्मान मिले। परंतु शीघ्र ही उनके विषय में समाज में संशय हो गया। तब उन्होंने हिन्दुओं को बुद्धि से कमजोर प्रचारित करना शुरू कर दिया। फ्रांसिस जेवियर ने प्रतिज्ञा की कि वह हिन्दू समाज को दुष्ट ब्राह्मणों के चंगुल से छुड़ायेगा। ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल मिंटो ने 1813 ईस्वी में इंग्लैंड की संसद में यह नोट प्रस्तुत किया कि भारत में सक्रिय ईसाई पादरियों ने एक एजेण्डा प्रस्तुत किया है जिसमें ब्राह्मणों की बड़े पैमाने पर हत्या को भारत में ईसाइयत के प्रसार की बाधा दूर करने के लिये अनिवार्य बताया गया है। जिस क्षेत्र में भी कंपनी प्रभावी होती, उसके भारतीय अधिकारी दो प्रकार के काम करते - आर्थिक दृष्टि से कमजोर ब्राह्मणों को अपनी कंपनी में भर्ती करना और उन्हें ईसाई बनने का प्रलोभन देना तथा अन्य हिन्दुओं को बड़े स्तर पर जबरन ईसाई बनाना। गोवा में तो ‘हथकट्टा चौराहा’ प्रसिद्ध है जहाँ फ्रांसिस जेवियर उन सभी हिन्दुओं के हाथ काट देता था जो ईसाई बनने से मना करते थे। कई हजार हिन्दुओं के हाथ वहाँ काटे गये। चर्च को बड़ी-बड़ी जागीरें दी गईं और उन्हें हिन्दुओं को ईसाई बनाने की प्रेरणा दी गई। गोवा और बंगाल में बड़े स्तर पर यह कार्य शुरू हुआ।
राबर्ट डी नोबिली नामक जेसुइट पादरी ने स्वयं को रोम का ब्राह्मण घोषित किया और येजुरवेद नाम से यीशु या जीसस की कहानी प्रचारित करने लगा। वह जनेऊ भी पहनने लगा और शिखा भी रख लिया तथा मांसाहार पूर्णतः त्याग दिया। तमिल और संस्कृत में उसने येजुरवेद लिखा और प्रचारित किया। समस्त छल प्रपंच के बाद भी उसे अधिक सफलता नहीं मिली।
इसके बाद ब्राह्मणों के विरूद्ध अभियान तेज हो गया। एक जर्मन लूथेरियन पादरी ने तमिलनाडु और गोवा में ब्राह्मणों के विरूद्ध जहर उगलना शुरू किया। उसे इसके लिये डेनमार्क के ईसाई राजा ने धन दिया। परंतु नर-नारी प्रणय को मूल पाप बताने की अत्यंत विकृत धारणा के कारण हिन्दू गृहस्थों को ईसाइयत सदा ही जुगुप्साजनक और आघातकारी तथा विकर्षक लगती रही। परंतु 200 वर्षों के निरंतर प्रयास से और राज्य के बल से धीरे-धीरे ईसाई मिशनरियों ने हिन्दुओं के बीच अपने बहुत से समर्थक बना लिये। ब्रिटिश शिक्षा ने इसमें निर्णायक काम किया।
इस दिशा में ऊँची और लंबी छलांग तो 15 अगस्त 1947 ईस्वी के बाद ही लगाई गई। भवानीशंकर नियोगी नामक एक उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति की अध्यक्षता वाली कमेटी की रिपोर्ट में इसके प्रचुर साक्ष्य हैं। नियोगी कमीशन की रिपोर्ट स्वयं कांग्रेस शासन ने 1956 ईस्वी में प्रकाशित की परंतु उसमें सुझाये गये किसी भी उपाय पर आज तक अमल नहीं हुआ है।
स्वाधीन भारत में भारत के बहुसंख्यकों के विरूद्ध ईसाई मिशनरियों द्वारा जहर उगले जाने का काम बहुत अधिक तेज हो गया है। 1936 ईस्वी में पॉल नामक एक पादरी ने छत्तीसगढ़ इवेन्जिकल मिशन की ओर से रामपरीक्षा, गुरूपरीक्षा आदि नामों से पुस्तिकायें छापी जिनके अनेक संस्करण अब तक छाप कर बाटें जा चुके हैं। इनमें खुलकर छापा गया है कि ‘राम, कृष्ण, महादेव आदि सब प्रकार की बुराइयों के वश में लिप्त रहे हैं। कृष्ण तो महापापी है। ऐसे देवताआंे की पूजा बहुत बड़ी मूर्खता है। हिन्दुओं के सभी देवता और सब ब्राह्मण पाप में लिप्त हैं। इसलिये बाकी हिन्दुओं को यह सब पूजा-पाठ त्याग देना चाहिये। जिससे कि ब्राह्मणों की जीविका का आधार समाप्त हो जाये। हिन्दू धर्म एक मिथ्या धर्म है। पैगम्बर मुहम्मद भी सच्चा पैगम्बर नहीं है। सच्चा तो केवल जीसस है जो गॉड का इकलौता बेटा है। जीसस के अनुयायियों को चाहिये कि वे राजनीति में अधिक से अधिक भाग लें और अपने ईसाई विचार सम्पूर्ण भारत में फैलायें। मूर्तिपूजा सबसे बड़ा अज्ञान और पाप है। हमको हिन्दुओं को इस पाप से मुक्त करना है।’
स्पष्ट है कि ऐसे स्पष्ट भारतद्रोही और हिन्दूद्रोही प्रोपेगंडा को संरक्षण भारत के शासकों ने 77 वर्षों से निरन्तर दिया है। हिन्दू धर्म, हिन्दू देवीदेवता और ब्राह्मणों पर आघात के साथ ही जातिप्रथा को दुनिया की सबसे बुरी और अन्यायपूर्ण व्यवस्था बताना इस प्रोपेगंडा का अंग है। इनसे प्रभावित अनेक समाज सुधारक समूह हिन्दुओं में सक्रिय हैं जो इनकी ही बात बोलते हैं और स्वयं को हिन्दुत्व के प्रति समर्पित तथा हिन्दू समाज का उद्धारक बताते रहते हैं।
इस विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जाति नाम की कोई भी अलग व्यवस्था भारत में नहीं है। कुलों के समूह को ही जाति कहते हैं। अतः कुलों या परिवारों का समूहन ही जाति है। वह कुलों से भिन्न कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है। इसलिये जातिविरोध का मुख्य उद्देश्य कुलों और परिवारों को नष्ट करना है। रोचक बात यह है कि कुल और परिवारों के बड़े-बड़े पक्षधर हिन्दू संगठन भी जाति का विरोध करते हैं। यानी उन्हें यह पता ही नहीं है कि वे क्या चाहते हैं और किसका विरोध कर रहे हैं। जाति नहीं रहने का एकमात्र अर्थ है कुलों का नहीं रहना। जब तक कुल हैं, तब तक कुलों का समुदाय है जिसे जाति भी कहते हैं। पुर्तगाली और यूरोपीय शब्द ‘कास्ट’ या ‘कास्टा’ से जाति का कोई संबंध नहीं है।
जाति स्वयं में ऊँची या नीची हो ही नहीं सकती। समाज में कुलों की स्थिति ही ऊँची या नीची अर्थात अधिक प्रतिष्ठित और कम प्रतिष्ठित हो सकती है। यह उस कुल के पुरूषार्थ और रिकार्ड पर निर्भर है।
ब्राह्मणों को लेकर जो अभियान है उसके पीछे भी दो प्रकार के अज्ञान या झूठ हैं। पहला तो यह कि ब्राह्मण का नाम सामने रखकर वस्तुतः पवित्र जीवन, संयम, सरलता, सात्विकता और ज्ञान की साधना पर आघात किया जाता है। दूसरा यह है कि ब्राह्मणों को श्रेष्ठ मानना प्रत्येक हिन्दू के लिये क्यों अनिवार्य है, यह सभी धर्मशास्त्रों में भलीभांति प्रतिपादित है। महाभारत में इसे और अधिक स्पष्ट किया गया है।
शांतिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व के अध्याय 59 के श्लोक 47 में पितामह भीष्म बतलाते हैं कि विधाता ने ब्राह्मणों से ही शेष तीन वर्णों की सृष्टि की है। क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र सभी ब्राह्मणों की ही संताने हैं। जैसे एक ही मूल से सामवेद, ऋग्वेद और यजुर्वेद निकले हैं उसी प्रकार एकमात्र ब्राह्मणों से ही सभी वर्ण उत्पन्न हुये हैं। इसलिये ब्राह्मणांे के साथ सबकी अभिन्नता है।
इस प्रकार ब्राह्मण ही सबके पूर्वज हैं। क्योंकि प्रारंभ में ब्रह्मा ने जो अपनी संताने पैदा कीं, वे ब्राह्मण हैं। आचरण की विशेषता तथा गुणकर्म की भिन्नता से उनके अलग-अलग वर्ण बाद में होते चले गये। ज्ञान के अभाव अथवा शील की कमी से भी वर्ण की भिन्नता हो जाती है। परंतु मूलरूप में तो ब्राह्मण ही आधारभूत कुल हैं। यही कारण है कि किसी हिन्दू का गोत्र यदि नहीं पता हो तो वह अपने कुल के पारंपरिक ब्राह्मण के गोत्र को ही अपना गोत्र मानता है और मान सकता है। यही शास्त्रीय प्रावधान है। इस प्रकार ब्राह्मणों पर आघात का मूल उद्देश्य हिन्दुओं की पूर्वज परंपरा पर आघात है तथा कुल परंपरा पर आघात है। क्योंकि जब मूल कुल और मूल पूर्वजों का ही स्मरण नहीं रहा तो फिर कैसा हिन्दू और कैसा हिन्दुत्व? इसीलिये सभी हिन्दूद्रोही समूह ब्राह्मणों पर आघात करते हैं। क्योंकि इसके द्वारा वे हिन्दू समाज की कुल परंपरा, गोत्र परंपरा, परिवार परंपरा और समाज परंपरा को नष्ट करना चाहते हैं।
महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सब लोग जो यह कार्य करते हैं, वे अपने अपने मजहब और रिलीजन की इकाइयों का भरपूर सम्मान करते हैं और उनके आधार पर ही व्यवहार करते हैं। यूरोप में हाउसेस, फैमिली और क्लैन का अत्यधिक महत्व है और सम्पूर्ण सामाजिक व्यवहार के यही नियामक हैं। इसके साथ ही विविध सेक्ट भी ईसाइयों में मान्यता प्राप्त हैं। इसी प्रकार इस्लाम में फिरके, घराने और खानदान को अत्यधिक महत्व प्राप्त है। वस्तुतः खानदान और घराना मूलतः पारसीक और उर्दू शब्द हैं और ये इस्लाम में प्रतिष्ठा प्राप्त हैं। खानदान और घराने को महत्व देना और जाति की निंदा करना अज्ञान या मूर्खता ही है।
परंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनाव के समय हर पार्टी और हर नेता जाति का उचित विचार करता है और जातिगत समीकरणों के ज्ञान के साथ ही प्रत्याशी घोषित किये जाते हैं। अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग कुलसमूहों का निर्णायक प्रभाव है और राजनीति में उसका विचार आवश्यक होता है।
वस्तुतः हिन्दू समाज में जाति को केवल कुलसमूह के रूप में ही स्थान प्राप्त रहा है। इसीलिये हिन्दू समाज विविध कुलसमूहों या जातियांे के साथ एक रहा है। वर्तमान में जाति को जो एक अलग महत्व मिल रहा है, उससे भारत राष्ट्र के विखंडन की प्रचंड सम्भावनायें उपस्थित हो गई हैं। क्योंकि यूरोप में तो जाति के आधार पर ही नेशन स्टेट बने हैं। जैसे एंग्लो सेशन जाति का राज्य है इंग्लैंड। जर्मेन यानी हूण के राष्ट्र हैं जर्मनी और हंगरी। पोल लोगों का राज्य पोलैंड। स्लाव लोगों का राज्य चेकोस्लोवाकिया और यूगोस्लाविया। गॉल जाति का राज्य गॉल या फ्रांस। हूणों का राज्य हूणगिरी यानी हंगरी।
इस प्रकार एक-एक जाति के ही नेशन स्टेट यूरोप में बने हैं। इन दिनों जिस प्रकार जाति को महत्व दिया जाता है, वह प्रवृत्ति बढ़ते हुये भारत में जाति के आधार पर अनेक नेशन स्टेट की मांग का कारण बन सकती है। यह खतरा भरपूर है। अतः जाति को कुलसमूह के रूप में देखने की परंपरागत भारतीय प्रवृत्ति को ही सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। जाति को एक अलग कौम की तरह प्रस्तुत करते हुये फिर जाति व्यवस्था की नकली निंदा करते हुये जाति पर जरूरत से ज्यादा बल देने से भारत राष्ट्र के लिये अच्छा नहीं होगा। -प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
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