बाहर से देखा करता, सब उलझा उलझा लगता था।

बाहर से देखा करता, सब उलझा उलझा लगता था।

बाहर से देखा करता, सब उलझा उलझा लगता था।
अन्तर्मन में झाँका जब, सब सुलझा सा लगता था।
यादें जब जब उसकी आयी, नींद नहीं हमको आती,
खुली आँख सोया रहता, बंद आँख जागा करता था।
जितना चाहा बिसराना, कभी नहीं बिसरा पाया,
भरी भीड़ मे तन्हा रहता, तन्हा याद उसे करता था।
लब अपने ख़ामोश रहे, था डर उसकी रुसवाई का,
उसकी ख़ुशियों ख़ातिर, घुट घुट जिया करता था।
शुष्क नयन गुमसुम सा जीवन, रह गया अब अपना,
खड़ी सामने दूर बहुत है, प्यार जिसे मैं करता था।


डॉ अ कीर्ति वर्द्धन

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