माॅं का आंचल
जैसे वृक्ष की छाया है सुखद ,
वैसे आंचल की छाया अथाह ।
वृक्ष छाया ग्रीष्म वर्षा में सुखद ,
मातृ आंचल छाया अथक प्रवाह।।
जब तक होती माॅं यह जीवित ,
तबतक आंचल देता यह सुख ।
बेटे को उदास जब है देख लेती ,
देखते सूख जाता माॅं का मुख ।।
सदा प्रयासरत रहती यह माता ,
बेटे को हर सुख प्रदान करने हेतु ।
बेटे और सुख के बीच में माता ,
बन जाती स्वयं दृढ़ सा एक सेतु।।
समुद्र से गहरा स्वर्ग से सुंदर ,
अंतरीक्ष से बड़ा आंचल माता की ।
माता की वैसी बरसती है कृपा ,
जैसे बरसती कृपा विधाता की ।।
मातृ पद होती यह माॅं धरा है ,
माॅं का शीश जैसे आसमान है ।
स्वर्ग है होता मातृ पद की धूलि ,
मातृ आशीष ही होता महान है ।।
माॅं की आंचल सम छाया कहाॅं ,
मातृ आंचल सम कहाॅं है सुख ।
माॅं सम कोई निज बेटे का ही ,
कहाॅं कैसे मिटा सकता है भूख ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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