अधूरी ख्वाहिशें

अधूरी ख्वाहिशें

रह जातीं जब अधूरी ख्वाहिशें ,
हो जाता मन ये उद्विग्न विकल ।
रहते छटपटा बिन जल मछली ,
प्राण क्यों नहीं ये जाता निकल ।।  
कभी कभी हो जाता है ऐसा भी ,
कर्म बावजूद रहे अधूरी ख्वाहिशें।
अथक परिश्रम भी करते निरंतर ,
फिर भी न होती पूरी ख्वाहिशें ।।
मानव जीवन है अजीब निराला ,
ख्वाहिशें आती जाती हैं निरंतर ।
एक ख्वाहिश पूरी न हो पातीं ,
दूसरी भी आ जाती पल अंतर ।।
मानव जीवन संघर्षरत है रहता ,
जबतक चलता है हाथ और पैर ।
चैन लेने न देता मन मस्तिष्क भी ,
करता रहता मन मस्तिष्क सैर ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।
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