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पिता

पिता

धूप में जलते हैं खुद और पाँव में छाले पड़े,
चलते रहें रात दिन, जितना भी चलना पड़े।
चिन्ता यही रहती है बस, परिवार खुशहाल हो,
बच्चों को रोटी मिले, चाहे भूखा खुद सोना पड़े।

रोते बहुत वह भी मगर, आँसू नजर आते नही,
भीतर से कोमल मगर, दर्द अपना कहते नही।
पी लेते हलाहल सारा, भोले शंकर की तरह,
थाम लेते वेग खुद पर, मुसीबतों से डरते नही।

पढ़ लिख कर बिटिया आगे बढ़े,
धरा से गगन तक शीर्ष तक चढ़े।
मेहनत कर बेटी को शिक्षित करूँ,
सफलता के कीर्तिमान बेटी गढ़े।

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
५३ महालक्ष्मी एनक्लेव
मुज़फ़्फ़रनगर २५१००१उ प्र
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