जनता का पैसा और नेताओं की चुनावी घोषणा:-डॉ. अजित कुमार पाठक,अधिवक्ता

जनता का पैसा और नेताओं की चुनावी घोषणा:-डॉ. अजित कुमार पाठक,अधिवक्ता

देश के पांच राज्यों में चुनावों की घोषणा के साथ चुनावी घोषणाओं की बरसात शुरू हो गयी | हर दल मतदाताओं को लुभाने के लिए लोक लुभावन नारों एवं घोषणाओं के द्वारा अपने पक्ष में करने की कोशिश में लगी हुई है | कोई दल गरीबों को मुफ्त में दो कमरों का घर, चार सौ रूपये में गैस सिलिंडर और किसानो को हर वर्ष १६ हज़ार देने की घोषणा कर रहा है तो कोई पुरानी पेंशन योजना को चालू करने की, लड़कियों की शादी के समय १० ग्राम सोने के साथ १ लाख रूपये देने और २०० यूनिट बिजली मुफ्त में देने की घोषणा कर रहा है | एक दल जब कई घोषणा करता है तो उससे अधिक की घोषणा करना दुसरे दल की मजबूरी बन जाती है और मतदाता घोषणा की बारिश में भींग जाता है |
पर ये राजनैतिक दल को यह नहीं पता है कि वो किस प्रकार उन घोषणाओं को पूरा करेंगे| बिना स्रोत और राज्य के आर्थिक स्थिति को जाने बिना घोषणा की क्रियान्वन के बिना जनता नजर में उन राजनैतिक दलों को झूठा और मक्कार बना देता है |
हमारे देश में सरकार को चलाने और कल्याणकारी कार्यों को पूरा करने के लिए सरकार जनता से कर(टैक्स) लेती है | यह दो प्रकार से लिया जाता है

  • १) प्रत्यक्ष कर(डायरेक्ट टैक्स )
  • २)अप्रत्यक्ष कर( इन डायरेक्ट टैक्स )

आयकर (इनकम टैक्स ) यह लोगों से सीधे तौर पर लिया जाता है इस लिए इसे डायरेक्ट टैक्स कहा जाता है और वस्तुओं और सेवाओं के माध्यम से जो टैक्स वसूला जाता है यानि जो जनता के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से दिया जाता है उसे अप्रत्यक्ष कर( इन डायरेक्ट टैक्स) कहा जाता है| इन सारी घोषणाओं को पूरा करने के लिए जनता से वसूली गयी टैक्स की ही जरुरत पड़ती है | लेकिन कितना टैक्स वसूला जायेगा वह इन नेताओं को पता ही नहीं रहता है | किस मद में कितना और कैसे खर्च होंगे यह उन लोगों को पता ही नहीं रहता है | जब जनता उन्हें चुनती है तो वो जैसे तैसे आम जनता से टैक्स वसूलती है या केंद्र सरकार से अनुदान मांगती है | अगर केंद्र सरकार ने हाथ खड़ा कर दिया तो राज्य और केंद्र सरकार की आपसी संबंधों में कटुता आ जाती है | बिहार में शराब की बिक्री से सरकार को काफी राजस्व आ जाता था , पर सरकार ने जब से शराबबंदी कर दी है तब से सरकार ने इस के भरपाई करने के लिए जमीन की रजिस्ट्री फीस में बेतहाशा वृद्धि कर दिया है | देश के अन्य राज्यों के मुकाबले यहाँ की रजिस्ट्री फीस दुगनी तिगुनी है| इसी तरह यहाँ कई तरह की टैक्स अन्य राज्यों के मुकावले बहुत ज्यादे है |
ये राजनैतिक दल जानते है की यहाँ की जनता को मुफ्तखोरी की लत है ,और बिना मुफ्त के दिए लिए बिना वो चुनाव नहीं जीत पाएंगे इस लिए वो बिना समझे बुझे घोषणा कर देतें है | देश में कई दल इसी तरह जीत भी गए और मुफ्तखोरी के आदत के कारण जनता ने अपना समर्थन भी दिया | आम जनता को क्या पता उन्हीं की जेब के पैसे से उन्हें बताशा खिलाया जायेगा | मुफ्त खोरी की यह आदत उनका कितना नैतिक पतन कर रहा है उन्हें इसका पता नहीं है| सरकार की कई जन कल्याणकारी योजना इस लिए सफल नहीं होती है क्योकि आम जन के अपने स्वार्थ इतने अधिक है कि देश की बात उनके दिमाग में आता ही नहीं है |
भारत की आबादी करीब करीब १४० करोड़ हो गयी हैं, इसमें सिर्फ ६.६५ करोड़ लोग व्यक्तिगत आयकर भरते है | यह संख्या कुल आबादीका ४.८% ही होता है | लेकिन यह संख्या हर वर्ष ८% की दर से बढ़ भी रही है | २०१२ में कर दाताओं की संख्या ३.१ करोड़ थी वहीँ २०२३ में ७.१ करोड़ हो गयी |पर कारपोरेट इनकम टैक्स भरने वालों की संख्या १० लाख ही हैं और ज्यादे छूट मिलने के कारण व्यक्तिगत आयकर भरने वालों ३३% कम हो गयी है | जब सरकार के पास कम टैक्स के पैसे आयेगे तो सरकार को क़र्ज़ लेना पड़ता है | हाल के वर्षों में अनुत्पादक खर्चों की वृद्धि से देश की आर्थिक स्थिति चरमराई है | सरकार कुछ भी कहे लेकिन मंहगाई, बेरोजगारी और निर्यात की कमी बताती है की देश की हालत कुछ अच्छी नहीं है | ऐसे में चुनाव के बढ़ते खर्च ,और राजनैतिक दलों की मुफ्त रेवड़ी बाँटने की घोषणा कोढ़ में खाज का काम करती है | रेवड़ी संस्कृति पर सर्वोच्च न्यायालय से लेकर चुनाव आयोग भी चिंता जता चुकी है ,
पर राजनैतिक दलों को इसकी कोई परवाह नहीं है | उन्हें तो अपने दलों का मार्केटिंग कर वोट पाना है | सरकार अगर चाहे तो इस रेवड़ी संस्कृति पर रोक लगा सकती है | अगर राजनैतिक दलों के लिए अनिवार्य कर दिया जाये कि कोई भी घोषणा करने से पहले रिज़र्व बैंक और चुनाव आयोग की स्वीकृति हासिल करें ताकि यह परखा जा सके कि सम्बंधित राज्य की आर्थिक स्थिति ऐसी है कि नहीं, जो उन घोषणाओं के खर्चे का वहन कर सके | अगर राज्य की ऐसी स्थिति नहीं है तो मतदाताओं को भी यह पूछना चाहिए कि वो घोषणा की गयी योजनाओं को कैसे पूरा करेंगे | चुनाव आयोग, सी.ए.जी जैसी संस्थाओ को यह भी अधिकार दिया जाना चाहिए कि वो इन राजनैतिक दलों से यह पूछ सकें किस प्रकार वो घोषणाओं को पूरा करेंगे? अगर इसका वो जबाब नहीं दे पायें तो उस दल को चुनाव लड़ने के अयोग्य कर दिया जाये | लेकिन किसी दल में यह नैतिकता नहीं है क्योकि उन्हें भी तो किसी तरह सत्ता हथियाना है | बिल्ली के गले में घंटी बांधने की जहमत भला कौन उठाएगा ? इस हमाम में तो सभी नंगे है| 
लेखक टैक्स पेयेर्स फोरम के अध्यक्ष हैं
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