राजधर्म: राजपुरोहित एवं अमात्यों की नियुक्ति-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

राजधर्म: राजपुरोहित एवं अमात्यों की नियुक्ति-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

गुणों, नीतियों और कर्तव्यों की विवेचना के साथ ही महाभारत में अनेक अध्यायों में राजधर्म के व्यावहारिक पक्ष की भी विवेचना विस्तार से की गई है। सर्वप्रथम अध्याय 85 में मंत्रिमंडल के गठन के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है:-
चतुरो ब्राह्मणान् वैद्यान् प्रगल्भान् स्नातकान् शुचीन्।
क्षत्रियांश्च तथा चाष्टौ बलिनः शस्त्रपाणिनः।।7।।
वैश्यान् वित्तेन सम्पन्ननेकविंशतिसंख्यया।
त्रींश्च शूद्रान् विनीतांश्च शुचीन् कर्मणि पूर्वके।।8।।
अष्टाभिश्च गुणैर्युक्तं सूतं पौराणिकं तथा।
पंचाशद्वर्षवयसं प्रगल्भमनसूयकम्।।9।।
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तं विनीतं समदर्शिनम्।
कार्ये विवदमानानां शक्तमर्थेष्वलोलुपम्।।10।।
वर्जितं चैव व्यसनैः सुघोरैः सप्तभिर्भृशम्।
अष्टानां मन्त्रिणां मध्ये मन्त्रं राजोपधारयेत्।।11।।
ततः सम्प्रेषयेद् राष्ट्रे राष्ट्रियाय च दर्शयेत्।
अनेन व्यवहारेण द्रष्टव्यास्ते प्रजाः सदा।।12।।
अर्थात राजा को 37 लोगों को एक मंत्रिमंडल बनाना चाहिये। जिसमें 4 वेदज्ञ तथा पवित्र एवं निर्भीक ब्राह्मण हों, 8 बलवान एवं शस्त्रधारी क्षत्रिय हों, 21 सम्पन्न वैश्य हों, 3 पवित्र जीवन जीने वाले शूद्र हों और पुराणविद्या को जानने वाला गुणवान एक सूत हो। इस प्रकार पाँच प्रकार के समूहों से सैंतीस लोग लिये जाते हैं। इनमें वैश्यों की संख्या सबसे अधिक इसलिये है कि वैश्य ही समाज का सबसे बड़ा भाग हैं। कृषि, गौरक्षा, वाणिज्य, व्यापार और शिल्प आदि सभी कर्म वैश्य कर्म हैं। अतः इन कार्यों में लगे लोग समाज का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। ये ही वैश्य हैं। वैश्य समाज का पर्याय जैसे ही होते हैं। इसीलिये 37 में से 21 मंत्री वैश्य वर्ण में से होंगे।
इन 37 में से कम से कम आठ मंत्रियांे के साथ राजा गुप्त मंत्रणा करे। उन आठ का चुनाव अवसर तथा विषय के अनुरूप राजा स्वयं करेंगे। इन आठों की राय से जो भी निर्णय हो, उसका सम्पूर्ण देश में व्यापक प्रचार किया जाये जिससे कि राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को उसका ज्ञान हो जाये। ताकि वे उसमें अपनी-अपनी भूमिका निभा सकें।
इस प्रकार प्रजा के प्रत्येक सदस्य को और प्रत्येक परिवार को राजकीय निर्णयों की जानकारी हो जाये, इसकी अत्यन्त प्राचीन काल से भारत में व्यवस्था है। मुस्लिम तथा अंग्रेज शासकों ने इसकी केवल रस्म निभाई परन्तु सचमुच सबलोग शासन के हर निर्णय को जिसका संबंध समाज से है, जान जायें, यह कभी भी उन लोगों ने सुनिश्चित नहीं किया। आधुनिक काल में भी भारत शासन इसे एक रस्म की ही तरह संचार माध्यमों में घोषित करके पूरा करता है। परन्तु परंपरा से यह राज्य का कर्तव्य माना जाता रहा है कि वह सुनिश्चित करे कि प्रत्येक नागरिक तक समाज से संबंधित शासकीय निर्णयों की सूचना अवश्य पहुँच जाये।
चाणक्य के अनुसार अमात्य नियुक्ति की प्रक्रिया
चाणक्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में प्रथम अधिकरण के चौथे प्रकरण, अष्टम अध्याय में अमात्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया बताई है। उन्होंने सर्वप्रथम भरद्वाज, विशालाक्ष, पराशर, नारद मुनि, कौणपदन्त, वातव्याधि, बाहुदन्तीपुत्र आदि अनेक आचार्यों के इस विषय में प्रतिपादित मत दिये हैं और अंत में अपना मत दिया है।
तदनुसार भरद्वाज मुनि का मत है कि राजा अपने साथ पढ़ने वालों में से ही अमात्य बनाये क्योंकि शिक्षा के समय वह अच्छी तरह देख लेता है कि कौन विश्वसनीय है और कौन नहीं है। विशालाक्ष इसका खंडन करते हैं और कहते हैं कि साथ पढ़ा हुआ अमात्य कई बार राजा की आज्ञा का उल्लंघन कर सकता है। क्योंकि वह उतना गहरा आदर नहीं रख पाता। इसलिये राजा स्वयं गुणवान व्यक्ति को चुन कर अमात्या बनाये। अमात्य राजा के मर्म को जानने वाले होते हैं। अतः इस विषय में बहुत सावधानी आवश्यक है। पराशर का मत है कि जिसने राजा की विपत्ति में या प्राणसंकट के समय सहायता की है और जिसकी निष्ठा का परिचय मिल चुका है, उसे ही अमात्य बनाये। नारद मुनि का कहना है कि प्राणों पर खेलकर राजा की रक्षा करना स्वामिभक्ति है। साधारण बुद्धि वाला भी भक्ति के उद्रेक से राजा के प्राणों की रक्षा कर सकता है। परंतु अमात्य की बुद्धि विलक्षण होनी चाहिये। अतः बुद्धिमान राज्याधिकारी को ही अमात्य बनाया जाना चाहिये। जिसे अपने कर्तव्यों का पूर्ण अनुभव हो। आचार्य कौणपदन्त नारद का खंडन करते हुये कहते हैं कि एक विषय मंे कुशल पुरूष अन्य विषयों मे अकुशल हो सकता है। अतः पिता-पितामह आदि अनुक्रम से आने वाले व्यक्तियों को ही अमात्य बनाना चाहिये। क्योंकि उन्हें ज्ञान प्राप्त होता है और वे कुल के प्रति निष्ठा रखने के कारण राजा से कुछ गलती हो जाने पर भी साथ नहीं छोड़ते। क्योंकि कुल के प्रति निष्ठा के कारण उनका लगाव बहुत गहरा होता है।
आचार्य वातव्याधि कहते हैं कि नहीं, नवीन-नवीन नीति के जानकारों को अमात्य बनाना चाहिये। इसमें एक लाभ यह भी है कि नवीन लोग राजा से डरते हैं और जहाँ तक संभव हो अपराध नहीं करते हैं। बाहुदन्तीपुत्र इसका खंडन करते हुये कहते हैं कि कोई व्यक्ति नीतिवान हो तो भी अमात्य पद के अनुभव से हीन होने पर वह उस कार्य को करने में कठिनाई का अनुभव करता है। इसलिये कुलीन, बुद्धिमान, पवित्र हृदय, शूरवीर और अनुराग से युक्त पुरूष को ही अमात्य बनाना चाहिये।
अंत मंे चाणक्य अपना मत देते हैं कि कार्य के उपस्थित होने पर देश और काल के अनुसार जैसा उचित लगे और जिसमें कार्य की सामर्थ्य दिखे उसे ही अमात्य बनाना चाहिये। परंतु सहसा किसी को इस पद पर नियुक्त नहीं करे। परीक्षण के बाद ही करे।
इसके बाद वे अमात्य और पुरोहित (मुख्य अमात्य ही पुरोहित होते हैं) के लिये अपेक्षित गुणों का वर्णन नवम अध्याय, पाँचवे प्रकरण में करते हैं -
जानपदोऽभिजातः स्ववग्रहः कृतशिल्पश्चक्षुष्मान्प्राज्ञो धारयिष्णुर्दक्षो वाग्मी प्रगल्भः प्रतिपत्तिमानुत्साहप्रभावयुक्तः क्लेशसहः शुचिर्मैत्रो दृढभक्तिः शीलबलारोग्यसत्त्वसंयुक्तः स्तम्भचापल्यवर्जितः संप्रियो वैराणामकर्तेत्यमात्यसम्पत्।।1।।
अतः पादार्धगुणहीनौ मध्यमावरौ।।2।। तेषां जनपदमवग्रहं चाप्तः परीक्षेत।।3।। समानविद्येभ्यः शिल्पं शास्त्रचक्षुुुुुुुष्मत्तां च।।4।।
कर्मारम्भेषु प्रज्ञां धारयिष्णुतां दाक्ष्यं च।।5।। कथायोगेषु वाग्मित्वं प्रागल्भ्यं प्रतिभानवत्त्वं च।।6।। आपद्युत्साहप्रभावौ क्लेशसहत्वं च।।7।। संव्यावहाराच्छौचं मैत्रतां दृढभक्तित्वं च।।8।। संवासिभ्यः शीलबलारोग्यसत्त्वयोगमस्तम्भमचापल्यं च।।9।। प्रत्यक्षतः संप्रियत्वमवैरित्वं च।।10।।
प्रत्यक्षपरोक्षानुमेया हि राजवृत्तिः।।11।। स्वयंदृष्टं प्रत्यक्षं परोपदिष्टं परोक्षम्।।12।।
अर्थात प्रधानमंत्री में ये गुण होना चाहिये:-
1 वे राजा के ही देश में उत्पन्न हों। भिन्न देश के न हों।
2 उत्तम कुल के हों। हीन कुल के न हों।
3 बुराइयों से दूर रहने की सामर्थ्य हो।
4 शिल्पविद्या में कुशल हों और संगीत आदि में भी पारंगत हों।
5 अर्थशास्त्र के ज्ञाता और सूक्ष्म दृष्टि से सम्पन्न हों।
6 प्रखर बुद्धिमान हों।
7 स्मरण शक्ति उत्तम हो।
8 कार्य को तेजी से पूरा करने की प्रवृत्ति और सामर्थ्य हो।
9 कुशल वाक्यों को बोलने में प्रणीण हों।
10 किसी विषय को भली-भांति व्यक्त करने में समर्थ हों और बिना झिझक के व्यक्त कर सकें।
11 युक्तियों और तर्कों द्वारा अपनी बात को समझा सकने की सामर्थ्य हो।
12 सदा उत्साह से सम्पन्न रहें।
13 प्रभावशाली हों और अन्यों को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखें।
14 लक्ष्य प्राप्ति के लिये कष्ट सहने की सहज सामर्थ्य हो।
15 पवित्र आचरण वाले हों।
16 समस्त प्रजा के प्रति स्नेहभाव रखें।
17 राजा के प्रति पूर्ण भक्ति हो। अविचलित भक्ति हो।
18 शील से सम्पन्न हों। उनके शील की लोक में ख्याति हो।
19 बलवान हों और पराक्रमपूर्वक कार्य कर सकें। निर्बल नहीं होना चाहिये।
20 पूर्ण स्वस्थ हों और सदा आरोग्य के नियमों का पालन करें।
21 धैर्य सम्पन्न हों। मानसिक शक्ति से युक्त हों।
22 गर्वरहित हों। अपने गुणों का दर्प न हो और दर्प का प्रदर्शन कदापि नहीं हो।
23 चपलता नहीं हो और जड़ता भी नहीं हो।
24 आकृति सौम्य हो। व्यक्तित्व सुदर्शन हो। देखने वाले पर सौम्य प्रभाव पड़े।
25 अकारण किसी से भी वैर-विरोध करने की कोई प्रवृत्ति नहीं हो।
इन 25 गुणों वाले योग्य व्यक्ति को ही प्रधानमंत्री बनाना चाहिये। अगर किसी मंत्री में इनमें से थोड़ी न्यूनता हो तो उसे मध्यम स्तर का पात्र मानंेगे और अगर इन 25 में से आधे ही गुण हों तो उसे अवर यानी निम्न स्तर का मानेंगे। राजा को चाहिये कि अपने विश्वस्त प्रामाणिक पुरूषों से परीक्षा कराने के बाद ही किसी व्यक्ति को मंत्री बनाये। उसके कुल और बंधु-बान्धवों के भी शील की जानकारी ले ले। साथ ही उसके सहपाठियों से उसके शिल्पज्ञान एवं शास्त्रज्ञान के विषय में जानकारी ले ले।
इसके साथ ही प्रधानमंत्री या मंत्री पद का दायित्व देने के बाद सम्बद्ध राजपुरूष द्वारा कार्य आरंभ करने पर राजा स्वयं उनकी बुद्धि, स्मरणशक्ति, प्रज्ञा और दक्षता की परीक्षा ले। उनसे शास्त्रचर्चा प्रारंभ कर उनकी वाग्मिता, प्रगल्भता और प्रतिभा का ज्ञान कर ले।
किसी आपत्ति के समय उनके धैर्य, सहनशक्ति, सूझबूझ और उत्साह की परीक्षा ले ले। साथ ही व्यवहार से यह अनुमान कर ले कि क्या उसका हृदय सचमुच पवित्र है और वह मैत्री भाव से सम्पन्न है तथा राज्य एवं राजा के प्रति भक्तिभाव रखता है। इसके साथ ही अन्य सहयोगियों के द्वारा प्रधानमंत्री और मंत्री बनाये जा रहे व्यक्ति के शील, बल, आरोग्य, सत्व, धैर्य, ज्ञान एवं गंभीरता की जांच कर ले। प्रत्यक्षतः उनके व्यक्तित्व में प्रीता होनी चाहिये और किसी से वैर रखने की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये।
इसके आगे चाणक्य ने कहा है कि सम्मुख, परोक्ष और अनुमान द्वारा परीक्षण करना चाहिये। किसी काम को जिस प्रकार प्रधानमंत्री या मंत्री ने संपादित किया है, उससे यह अनुमान लगाना कि शेष काम वो कैसा करेंगे, इसे अनुमेय कहते हैं। कार्यों की विपुलता के कारण अनेक कार्य राजा की अनुपस्थिति में ही होंगे, इसलिये भलीभांति परीक्षा करके ही नियुक्ति करना चाहिये। ऐसे योग्य पुरोहित एवं अमात्य के द्वार संवर्धित और सम्यक मंत्रणा से सुसंस्कृत राजा अलभ्य वस्तुओं को भी प्राप्त कर लेता है। आचार्य चाणक्य ने अमात्यों की संख्या नहीं दी है और अपनी आवश्यकता एवं सुविधा के अनुसार अमात्यों की नियुक्ति राजा करे, यही कहा है। -प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
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