मेरे साथ मेरा मोबाइल

मेरे साथ मेरा मोबाइल

अचानक रिश्तों में
आ गई गिरावट
सामाजिकता में भी कमी आई
कहने का समय नहीं
सुनने का समय नहीं
समझने का समय नहीं
जीवन में अपनत्व भी
परिभाषा हीन हो गया
सबकी जुबान पर
कब्जा है बस रटे- रटाये
एक वाक्यांश का
"व्यस्त हूँ....बिजी हूँ.... फुर्सत नहीं.....
मिलता हूँ बाद में.....कॉल यू लै.....
ग़जब का भाषायी साम्य है इनमें।
गोपनीयता नंगी हो चुकी है
सार्वजनिक जीवन है एकांतवासी
नव जोड़े भी विरक्त हैं
जैसे कोई सन्यासी
भाषा सांकेतिक हो रही है
व्याकरण और साहित्य
मूक हो चले हैं
मेले में सब हो चुके अकेले हैं
पति - पत्नी वामपंथी ज्यों हो गए हैं
संवेदना विहीन एकाकीपन है
रनिवास भी निर्जन है।
मोबाइल नाम की बीमारी
कोरोना से भी बड़ी महामारी है
आभासी दुनिया में
अपनत्व के सपने दिखाता है
नकली चलचित्र को
जीवन बताता है
हे सुविधा भोगी मानव!
मत बन इसका गुलाम
वरना आएगा ऐसा वक्त भी
जब सबकुछ निगलकर
पास में रह जाएगा
सिर्फ यही मोबाइल
और फिर जिंदगी करेगी समीक्षा
क्या खोया?
क्या पाया??
और मन चित्कार उठेगा कि
सब खोकर
एक लघु यन्त्र पाया
बस मोबाइल पाया
जिसमें आउटगोइंग के लिए
कोई न होगा दूसरी ओर
नहीं आएगा इनकमिंग
रहेगा सिर्फ -
मेरे साथ मेरा सूना मोबाइल।
डॉ अवधेश कुमार अवध
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ