काला धन

काला धन

मन तेरा जब हुआ काला ,
तब बटोरे तुम काला धन ।
छुपे छुपाए तुम घूम रहे थे ,
शराफत का चेहरा ले तन ।।
तबतक तुम सज्जन बने थे ,
जबतक तेरी न खुली पोल ।
पहले से हुए आज प्रचलित ,
तब तुम आज बन गए ढोल ।।
पहले तो तुम बहुमूल्य हुए थे ,
आज बता कितना तेरा मोल ।
अबतक बहुत ही उछले कूदे ,
अब कुछ बोल सको तो बोल ।।
कहाॅं गया अब तेरा वह धन ,
वह काला धन तुझे बचाएगा ।
काला धन किया मुॅंह ये काला ,
अब तेरे पीछे कौन ये आएगा ।।
मन जिसका हो जाता काला ,
जीवन उसका काला हो जाता ।
जीवन भी हो जाता कलंकित ,
समय भी काला ही है दिखाता ।।
मन को पावन तो तू कर ले बन्दे ,
अपनी भुजबल पर कर भरोसा ।
तुम्हें भी वही मिलेगा एक दिन ,
दूजे को है तुमने जो भी परोसा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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