वंशी के रंध्रों से नि:सृत
डॉ रामकृष्ण मिश्रवंशी के रंध्रों से नि:सृत
मृदुतम ध्वन्यालोक।।
मोहित कर देता है स्नेहिल
मन को बना अशोक।।
बिछ जाती है पथ में कल्पित
सुरभित सुमन चटाई।
अभिमंन्त्रित से मधुर भाव की
काव्य मयी पुरवाई।
झिर- झिर झरने लगती तन्मय
नहीं कहीं है टोक।
निर्मल मन की पंचवटी में
मंदाकिनी किलोल,
हर पल जल -तरंग बज उडते
मदिर रागिनी खोल।
मोहन श्यामा की प्रतीति में
संभव नहीं विमोक।।
संकर्षी अनुरागी जीवन
जब होता चैतन्य
केवल दृष्टि वहीं होती है
जहाँ न कोई अन्य।।
तृप्ति ताल तक मन रम जाएकोई सके न रोक।।
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मृदुतम ध्वन्यालोक।।
मोहित कर देता है स्नेहिल
मन को बना अशोक।।
बिछ जाती है पथ में कल्पित
सुरभित सुमन चटाई।
अभिमंन्त्रित से मधुर भाव की
काव्य मयी पुरवाई।
झिर- झिर झरने लगती तन्मय
नहीं कहीं है टोक।
निर्मल मन की पंचवटी में
मंदाकिनी किलोल,
हर पल जल -तरंग बज उडते
मदिर रागिनी खोल।
मोहन श्यामा की प्रतीति में
संभव नहीं विमोक।।
संकर्षी अनुरागी जीवन
जब होता चैतन्य
केवल दृष्टि वहीं होती है
जहाँ न कोई अन्य।।
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