खुद को खुद में ढूॅंढ़ रहा हूॅं

खुद को खुद में ढूॅंढ़ रहा हूॅं

नहीं समाहित खुद मैं खुद में ,
दूजे को देख खुद कुढ़ रहा हूॅं ।
कहाॅं स्थित अपने ही तन में ,
खुद को खुद में ढूॅंढ़ रहा हूॅं ।।
सदा रहता हूॅं मैं तो दुखियारा ,
कभी रहा नहीं मैं तो सुख में ।
स्व चिंतन छोड़ दूजे की चिंता ,
रहता हूॅं सदा मैं ही दुःख में ।।
कब किसको मैं टाॅंग अड़ाऊं ,
सदा रहता मैं अपनी दाॅंव में ।
ऊपर से मैं शुभचिंतक रहता ,
अंदर से मैं अपनी ही भाव में ।।
अंदर से स्वयं में मैं साफ नहीं ,
मैं खुद ही रहता खुद से जुदा ।
खुद तो खुद न खुद में समाहित ,
खुद ही खुद में ढूॅंढ़ रहा खुदा ।।
खुद ही खुद में खोद रहा खाई ,
मैं तो रहता हूॅं दूजे में ही गुम ।
कहे खुदा मैं कैसे आऊं तुममें ,
स्वयं में ही रहते कहाॅ़ं हो तुम ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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