Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

खुद को खुद में ढूॅंढ़ रहा हूॅं

खुद को खुद में ढूॅंढ़ रहा हूॅं

नहीं समाहित खुद मैं खुद में ,
दूजे को देख खुद कुढ़ रहा हूॅं ।
कहाॅं स्थित अपने ही तन में ,
खुद को खुद में ढूॅंढ़ रहा हूॅं ।।
सदा रहता हूॅं मैं तो दुखियारा ,
कभी रहा नहीं मैं तो सुख में ।
स्व चिंतन छोड़ दूजे की चिंता ,
रहता हूॅं सदा मैं ही दुःख में ।।
कब किसको मैं टाॅंग अड़ाऊं ,
सदा रहता मैं अपनी दाॅंव में ।
ऊपर से मैं शुभचिंतक रहता ,
अंदर से मैं अपनी ही भाव में ।।
अंदर से स्वयं में मैं साफ नहीं ,
मैं खुद ही रहता खुद से जुदा ।
खुद तो खुद न खुद में समाहित ,
खुद ही खुद में ढूॅंढ़ रहा खुदा ।।
खुद ही खुद में खोद रहा खाई ,
मैं तो रहता हूॅं दूजे में ही गुम ।
कहे खुदा मैं कैसे आऊं तुममें ,
स्वयं में ही रहते कहाॅ़ं हो तुम ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ