दर्द आभूषण बने हैं
अजीब धन का मानव से रिश्ता ,धन है फिर भी धन की चाहत ।
आजीवन धन हेतु ही जुझे पड़े ,
निर्धन को नहीं धन बिन राहत ।।
हम से बेहतर पशु पक्षी हैं होते ,
जिन्हें होता धन की चाह नहीं ।
मिल जाए भोजन तो ठीक है ,
नहीं मिला तो है परवाह नहीं ।।
धन नहीं तो धन हेतु ही मरता ,
धन है तो जीवन है धन रक्षा में ।
निर्धन लाचार असहाय की सेवा ,
नहीं पढ़ा कभी वह कक्षा में ।।
धन का शृंगार है आभूषण बना ,
आभूषण बना जीवन का दर्द ।
आभूषण अर्थ समझा तो ठीक ,
नहीं समझने वाला होता बर्द ।।
आभूषण होता प्राण का ग्राहक ,
जन धन दोनों ही नाश करता है ।
धन का होता है सदुपयोग नहीं ,
धन जाने से ही वह तो डरता है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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