मेरा अनमोल बचपन
कहाॅं गए हमारे वो अब दिन ,जब साइकिल टायर नचाते थे ।
तन भी होता पसीने से ये तय ,
फिर भी खेल से न अघाते थे ।।
चीका कबड्डी खो खो खेलते ,
घर का भी याद नहीं रहता था ।
देर हुई खेलने में कभी जब भी ,
शरीर पर जोर डंडा पड़ता था ।।
मजे होते थे पतंग उड़ाने में भी ,
मजे आते जब डोर कट जाते थे ।
मजे से देखते पतंग का कटना ,
बेताब पतंग लूटने दौड़ जाते थे ।।
गुल्ली डंडा और आंख मिचौनी ,
यह भी खेल बहुत ही मशहूर था ।
खेल में निभाता अच्छी भूमिका ,
मुझे अपने पर बहुत गुरूर था ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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