Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

विवेकानन्द : विश्व-मानवता की अनुपम विभूति

विवेकानन्द : विश्व-मानवता की अनुपम विभूति

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
(यहाँ मैं विवेकानन्द पर अपने गहन स्वाध्यायजन्य अनुशीलन को सार-संक्षेपतः प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है, यह आपके विचार-जगत् को सम्यक् उद्भासित कर सकेगा। )
स्वामी विवेकानन्द भारतीय धर्म-साधना के चिरन्तन इतिहास के शक्तिशाली वेग से उद्भावित विश्व-मानवता की महाप्राण दिव्य विभूति थे। उन्होंने अपने विराट् व्यक्तित्व से निखिल विश्व को प्रभावित और अनुप्राणित किया।मैं उन महाप्राण आत्मा को अनुग्रह-सृष्टि की विभूति मानता हूँ।
उन्होंने विश्व-पटल पर सार्वभौम धर्म की अवधारणा प्रस्तुत की, जो अपने आप में सर्वथा मौलिक परिकल्पना थी और थी भारतीय अद्वैत वेदान्तीय महामनीषा का विश्व-मानवता को अपूर्व प्रदेय।
वह वैयासकि शुकदेव की भाँति जन्मजात योगेन्द्र थे, किंतु उनकी लोकोत्तर दिव्य चेतना जागरित तब हुई, जब उनका अन्तरंग सान्निध्य परमहंस रामकृष्ण देव से हुआ। इस सान्निध्य के पूर्व अपनी अनन्त ज्ञान-पिपासा की शान्ति के लिए पाश्चात्य दार्शनिकों ह्यूम, हर्बर्ट स्पेंसर और जाॅन स्टुअर्ट मिल आदि का अनुशीलन करते रहे, किंबहुना केशव चन्द्र सेन के ब्रह्मसमाज से संपृक्त हुए, पर उन्हें समाधान प्राप्त न हुआ, अन्तरात्मा की अशान्ति यथावत् बनी रही। उनके कतिपय अंग्रेज शिक्षक प्रोफेसर हेस्टी आदि आध्यात्मिक जिज्ञासावश रामकृष्ण परमहंस की सन्निधि में उपस्थित हुआ करते थे। उन्हीं की प्रेरणा से नरेंद्र (नरेंद्र नाथ दत्त, विवेकानंद का पूर्व नाम) परमहंस के सान्निध्य में पहुँचे।प्रारंभ में तो उन्हें चुहल की प्नवृत्ति हुई ,किंतु एक दिन जब विशेष आहूत होकर पहुँचे और रामकृष्ण परमहंस ने उनके वक्षःस्थल पर पदाघात से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत् कर दी,तो उनके जीवन में क्रान्ति हो गई, उनकी अन्तश्चेतना में आमूल रूपांतरण घटित हुआ, जैसे नास्तिक थौमस का रूपांतरण सेन्ट पाॅल में हुआ था ("Great is the metamorphosis of the unbelieving Thomases into the saint Pauls "--vide, Paramhansa Yoganand, 'The Autobiography of A Yogi ') .
परमहंस रामकृष्ण देव के पदाघात के फलस्वरूप जो परम अलौकिक अनुभव हुआ ,उसका विवरण स्वयं नरेन्द्र के शब्दों में यधावत् उपस्थापित है, जो यहाँ सारतः प्रस्तुत है--
"अपने आप से कुछ अस्फुट बोलते हुए और अपनी निर्निमेष दृष्टि मुझपर केंद्रित करते हुए धीरे से मेरे समीप आए तथा पलक झपकते उन्होंने अपना दाहिना पद-तल मेरे वक्षःस्थल पर रख दिया। स्पर्श होते ही मुझे सर्वथा अभिनव अनुभव हुआ। अपनी पूरी खुली दृष्टि से मैंने देखा कि उस कक्ष की दीवारें और प्रत्येक वस्तु अत्यंत तीव्रता से घूमने लगीं और शून्य में विलीन होने लगीं। पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड मेरी व्यष्टि के साथ सर्वसमावेशी रहस्यमय शून्य में लयोन्मुख हो उठा!मैं अत्यंत भयाकुल हो गया और ऐसा प्रतीत हुआ कि मुझे मृत्यु का सामना करना पड़ेगा-----और मैं चीत्कार कर उठा, आप क्या कर रहे हैं, घर में मेरे माता-पिता हैं!तब उन्होंने अट्टहास किया और मेरे वक्ष को सहलाते हुए कहा, 'ठीक है, अभी के लिए इतना पर्याप्त है, शेष सब यथासमय घटित होगा!'आश्चर्य तो यह था कि जैसे ही उन्होंने ऐसा कहा, वैसे वह सारा अनुभव तिरोहित हो गया तथा मैं प्रकृतिस्थ हो गया और सारा परिदृश्य यथापूर्व सामान्य (vide, Introduction to "What Religion Is ,in the words of Vivekanand "by Christopher Isherwood) ।"
इस प्रकार उनका अन्तश्चक्षु उन्मीलित हो गया, उन्हें सत्य का आभास हो गया, किंचित् और धैर्य रखा होता, तो उसी महाशून्य से परमहंस की इष्टतमा
जगदम्बा दक्षिणा काली का भी साक्षात्कार तत्काल हो गया होता, जो कालांतर में ऐसी ही समाधि की अवस्था में हुआ।
'नरेंद्र ' नाम की भी अन्वर्थता सुसिद्ध है। परमहंस रामकृष्ण 'नरेन' कहकर पुकारा करते थे। रामकृष्ण मिशन के अन्य संन्यासियों की भाँति कोई पृथक् संन्यास-नाम इन्होंने धारण नहीं किया। रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें 'कमलाक्ष 'नाम दिया तो था, पर नरेंद्र को स्वीकार्य न हुआ। श्री रामकृष्ण परमहंस के इहलीला-संवरण के पश्चात् भारतवर्ष की यथार्थ दशा के प्रत्यक्षीकरण-हेतु परिव्रजन के क्रम में अपनी पहचान की गोपनीयता के निमित्त 'विविदिशानन्द ',सच्चिदानंद 'आदि नाम धारण किए थे। ये सब नाम यों ही रह गए, केवल वही नाम उनके व्यक्तित्व के साथ नित्यतः लग्न रह गया, जो खेतड़ी के महाराज ने उन्हें अमेरिका के लिए प्रस्थान करने के क्रम में दिया था --"स्वामी विवेकानन्द "(vide, Romain Rolland, 'The Life of Vivekanand 'P5FN )।
'नरेंद्र ' नाम भी अपने-आप में समधिक अन्वर्थ था।यह शब्द सामान्यतः 'राजा ' के अर्थ में प्रचलित और प्रथित है, किंतु यह 'नर-श्रेष्ठ 'के अर्थ में भी सर्वथा ग्राह्य है।' इन्द्र' श्रेष्ठ के अर्थ में भी उसी तरह ग्राह्य है,जैसे वृषभ,शार्दूल, कुंजर, सिंह आदि। 'गजों में श्रेष्ठ ' के लिए 'गजेंद्र 'की नाईं 'नरों में श्रेष्ठ 'के अर्थ में 'नरेंद्र ' अन्वर्थ है। महाभारत ,पुराणादि के मङ्गलाचरण में "नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमं "में जो 'नरोत्तम नर 'है उसी अर्थ में 'नरेन्द्र 'की ग्राह्यता समीचीन है। संभवतः इसी अभिप्राय से 'नरेन्द्र '(पुकार में 'नरेन ')नाम परमहंस रामकृष्ण की जिह्वा पर आरूढ रहता था। 'विवेकानन्द ' नाम से प्रथित होने के बाद भी रामकृष्ण मिशन के व्रत-विशेष के रूप में दरिद्र -नारायण की सेवा की दृष्टि से नरेन्द्र नाम की सार्थकता सुसिद्ध है।
अमेरिका के लिए प्रस्थान करने के कुछ ही पूर्व खेतड़ी के महाराज ने 'विवेकानन्द ' नाम से उन्हें विभूषित किया था, जो काल के भाल पर अमिट रूप में अंकित हो गया। 'नरेंद्र 'नाम को अवक्रान्त कर 'विवेकानन्द 'नाम ही विश्व-विश्रुत हो गया। अमेरिका के लिए प्रस्थान करने के क्रम में रेशमी परिधान और उष्णीश भी खेतड़ी महाराज ने ही प्रदान किया था। अमेरिका जाने के लिए बम्बई तक महाराज ने अपने दीवान को उनके साथ कर दिया था।
अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित सर्वधर्म-संसद् में सम्मिलित होने के लिए अनाहूत और अनामित ही उपस्थित हुए थे। यह तो उनके लोकोत्तर तेजस्वी व्यक्तित्व का उत्कट प्रभाव था कि श्रीमती हेल एवं हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राइट (J•H•Wright)के सहयोग से सर्वधर्म-संसद् में हिन्दू-धर्म के भारतीय प्रतिनिधिमंडल में स्वामी विवेकानन्द का समावेश हो सका।
प्रथम सत्र सोमवार, 11 सितंबर 1893 को प्रारंभ हुआ। जब विवेकानन्द बोलने के लिए मंच पर खड़े हुए, तो उनके शालीन- भव्य -तेजस्वी व्यक्तित्व ने ही प्रथमतः समस्त श्रोता-मण्डली पर अपनी मोहनी डाल दी। स्वामी विवेकानन्द पर सबकी टकटकी बँध गई। उनके कण्ठ से परिनिष्ठित अंग्रेजी में हृदय-गह्वर से उद्गूर्ण मेघ-मन्द्र स्वर स्फुरित हुआ--"My sisters and brothers of Amerika !"इस गहरी आत्मीयता से अनुप्राणित संबोधन ने श्रोताओं को इतना भावोद्वेलित कर दिया कि करतल-ध्वनि से दो मिनट तक आकाश गुंजायमान होता रहा। इस संबोधन में भारतीय संस्कृति की मूलभूत चेतना 'वसुधैव कुटुम्बकम् 'अनुनादित हो रही थी। इसी उदात्त भाव-धरातल पर उन्नीत स्वामी उनको सुनने के लिए अत्युत्सुक उन श्रोताओं के प्रति उन्मुख थे, अतएव उनकी तेजोदृप्त वाणी ने सबको मन्त्रमुग्ध कर दिया।
प्रथम सत्र के अपने संबोधन में उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता (4/11)का एक श्लोक--
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।"
["हे अर्जुन, जो मुझको जैसे भजते हैं मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ (प्राप्त होता हूँ)।इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान् मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बरतते हैं। "]
और ,दूसरा श्लोक (शिखरिणी छन्द) पुष्पदन्त-रचित 'शिवमहिम्नःस्तोत्रम् 'से-
"त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति।
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च। ।
रुचीनां वैचित्र्यात् ऋजुकुटिलनानापथजुषाम्।
नॄणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामेवार्णव इव ।।"
[ "त्रयी (वेद),सांख्य, पशुपतिमत (शैव)तथा वैष्णव मत--प्रस्थान-भेद से ये मत कल्याणकारी हैं। रुचियों की विचित्रता के कारण सीधे-टेढ़े नाना मार्गों के अनुसारियों का गन्तव्य एक ही है, जैसे सभी नदियों का गन्तव्य एक समुद्र ही होता है। "]
--दो श्लोक उद्धृत किए।
अन्य वक्ताओं ने अपने-अपने पंथ किंवा संप्रदाय के अवधारित परमेश्वर का प्रतिपादन किया, किंतु केवल स्वामी विवेकानंद ने ही उन सब के ईश्वरों का वर्णन किया तथा उन सब को एक ही सार्वभौम परम सत्ता की अभिव्यक्ति के रूप में प्रतिपादित किया ।यह वस्तुतः रामकृष्ण परमहंस की ही प्राण-शक्ति थी जो समस्त अवरोधों को अपने महान् शिष्य के मुख से ध्वस्त कर रही थी और इस प्रकार एक सार्वभौम धर्म, विश्व-धर्म (Universal Religion ),की परिकल्पना को आकार दे रही थी।
आत्मा एक ही है, दो नहीं हो सकती। विश्व एक शाश्वत सत्, आत्मा, का प्रतिफलन (Reflection)है। सभी स्वर्ग, सभी भूमियाँ मन की मिथ्या कल्पनाएँ हैं--
"The Universe is the Reflection of that eternal being, the Atman •••••••There is but one soul in the universe, not two. ••••All these heavens, all these earths, are vain imaginations of the mind ('what Religion Is in the words of Vivekanand ' P •112)."
इसी वैश्विक दृष्टि-बोध को सशक्त करते हुए उनका उद्गार है-"आत्मा की असीम एकता समस्त नैतिकता की शाश्वत स्वीकृति है कि आप और मैं केवल भ्राता नहीं ••••अपितु हम सब यथार्थतः एक हैं,"The infinite oneness of the soul is the eternal sanction of all morality, that you and I are not only brothers •••but that you and I are really one (vide, Romain Rolland:'Life of Vivekanand 'P-89)."
यह जगत्, विश्व जिसे हमारी इन्द्रियाँ महसूस करती हैं और हमारा मस्तिष्क जिसका चिन्तन करता है, केवल एक परमाणु है, एक अनन्त तत्त्व, जो चेतना के तल पर प्रक्षिप्त है--"This world, this universe which our senses feel or our mind thinks, is but one atom of the Infinite, projected on to the plane of consciousness ( 'what Religion is in the words of Vivekanand ' P-36 )."
प्रत्येक धर्म के प्रतीयमान अन्तर्विरोध एवं असमंजस उसके विकास की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं। सभी धर्मों का पर्यवसान जीवात्मा में परमात्मा का साक्षात्कार है। वही सार्वभौम (वैश्विक)धर्म है-" The apparent contradictions and perplexities in every religion mark but different stages of growth. The end of all religions is the realization of God in the soul. That is the one universal religion ('what Religion Is in the words of Vivekanand 'P-3)."
इसका यह मतलब नहीं कि विश्व के अलग-अलग धर्म अपना निजत्व खो देंगे, बल्कि ऐकात्म्य उस परम सत्य की दृष्टि से है, जो आत्म-साक्षात्कार के रूप में घटित और पर्यवसित होता है। स्वामी जी के शब्दों में--
"The gigantic principles of religion were already discovered ages ago, when men found the last words in the Vedas, 'I am He '(सोऽहम्) --the truth that there is that One in whom this whole universe of matter and mind finds its unity,whom they call God or Brahman or Allah or Jehovah or any other name ('what Religion Is in the words of Vivekanand 'P-11)."
आज के वैज्ञानिक युग में तार्किक प्रत्यक्षवाद (logical positivism)फैशनेबुल हो गया है। तदनुसार कोई भी बात तब तक सत्य नहीं मानी जा सकती, जबतक वह अपने अनुभव के द्वारा सत्यापित न हो।यही सिद्धांत है, जो श्री रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें कहा था और विवेकानन्द ने आध्यात्मिक साधना एवं योगाभ्यास के द्वारा समाधि-स्थित होकर परमात्मा के याथार्थ्य को प्रत्यक्ष अनुभूत किया था। वह सर्वोच्च चैतन्य, परमात्मा, से संलाप एवं उसके साथ अपने को अभिन्न अनुभूत करने में समर्थ थे। इस प्रकार का धर्म ही स्वभावतः दृष्टिकोण की सार्वभौमता के धारण में फलित हो सकता है--"He was able to commune with the Supreme Spirit. That is the only kind of religion we could have. Such kind of religion naturally leads us to adopt a universality of outlook. It does not confine our attention to this particular dogma or that particular sect(Dr.S.Radhakrishnan:'Our Heritage 'P-87 )."
स्वयं स्वामी विवेकानन्द ने स्पष्टतः आत्मसाक्षात्कार को ही धर्म घोषित किया है। धर्म कोई मतवाद या सिद्धांत नहीं, चाहे वह कितना भी चारु क्यों न हो। यह अस्ति और संभवन है, महज श्रवण या स्वीकरण नहीं। यह संपूर्ण आत्मा का उस 'सत् 'में रूपांतरण है, जिसमें उसकी आस्था है --",Religion Is realization;not talk, nor doctrine, nor theories ,however beautiful they may be. It is the whole soul becoming changed into what it believes. That is religion. ('What Religion Is in the words of Vivekanand ' P-41-42)."
स्वामी विवेकानन्द ने महात्मा बुद्ध को आदर्शतम कर्मयोगी माना है, जिसने कर्मयोग की शिक्षा को साधना में प्रत्यक्ष किया। महात्मा बुद्ध ही एक ऐसे पैगंबर रहे, जिन्होंने कहा, 'मैं ईश्वर के बारे में तुम्हारे नाना सिद्धांतों को जानने की चिन्ता नहीं करता। आत्मा -परक सूक्ष्म सिद्धांतों के विषय में ऊहापोह करने से क्या लाभ?भलाई करो और भले बनो,बस यही तुम्हें मुक्तिकारक होगा और जो कुछ सत्य है वह तुमहें अधिगत हो जाएगा। ••••••बुद्ध ऐसे आदर्श कर्मयोगी हुए, जिनका कर्म अहैतुक था, सर्वथा स्वार्थ-रहित। वही ऐसे प्रथम महापुरुष हुए, जिन्होंने घोषणा की, 'किसी बात को तुम इसलिए मत मानो कि यह श्रुति-परम्परा से चली आ रही है, या लोक-व्यवहार से आ रही है, या किसी ग्रन्थ में लिखी है •••,किन्तु जब तुम स्वयं अपनी बुद्धि से उसे समझ लो और वह तुम्हें जँच जाय तभी उसे मानो और उसे पूर्ण निष्ठा से जियो '। कर्म का सर्वोत्तम संपादन वही करता है, जिसका कर्म अहैतुक है--न वह धन के लिए हो, न ख्याति के लिए और न किसी अन्य वस्तु के लिए "---"A few words about one man who actually this teaching of Karmayoga into practice. That man is Buddha .Buddha is the only prophet who said, 'I do not care to know your various theories about God. What is the use of discussing all the subtle doctrines about the soul?Do good and be good and this will take you to freedom and to whatever truth there is. '••••••He was the first who dared to say, 'Believe not because some old manuscripts are produced;believe not because it is your national belief, because you have been made to believe it from your childhood;but reason it all out, and after you have analysed it, then, if you find that it will do good to one and all, believe it, live up to it, and help others to live up to it ("what Religion Is in the words of Vivekanand "P-242)." स्वामी विवेकानन्द विश्व-मानवता की विराट् विभूति थे ,संप्रदाय -मुक्त एक विराट् मानवीय चेतना। किसी भी मतवादी परिधि में उन्हें बद्ध करने का प्रयास निरा मूढता का इजहार होगा। उनका दाय अखिल विश्व की संपदा है।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ