मैं तूफानों में चलने का आदी हूं

आदरणीय गोपाल दास नीरज जी को सादर समर्पित, उन्हीं की एक रचना से-----

मैं तूफानों में चलने का आदी हूं

तुम मत मेरी मंजिल आसान करो।
हैं फूल रोकते कांटे मुझे चलाते
मरुस्थल पहाड चलने की चाह बढाते---
सच कहता हूं जब मुश्किल ना होती है
मेरे पग तब चलने में शर्माते।
मेरे संग चलने लगी हवाएं जिससे
तुम पथ के कण कण को तूफान करो---
मैं तूफानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो ---


परम आदरणीय गोपालदास नीरज जी से मिलने एवं बातचीत करने के अवसर मुझे दिल्ली प्रवास के दौरान मिले। नीरज जी के व्यक्तित्व के बारे में संपूर्ण देश ही नहीं अपितु विश्व के गीत प्रेमी जानते हैं। आदरणीय नीरज के गीतों को ही आधार बनाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करता हूं---


अंगार अधर पर रखकर, जो मुस्काता था,
चूम मृत्यु का गला, बार-बार उठ जाता था।
शोलों से ही श्रंगार पथिक का करने वाला,
गीत मसीहा शब्दों का बाजीगर कहलाता था।


प्यार को देवता और समर्पण माना उसने,
भावना को देव तृप्ति का साधन माना उसने।
कभी मचलते नैनों में देखे थे प्यार के सपने,
हुआ दग्ध मन, यादों को बिसराया उसने।


जी उठे शलभ शायद, इस आस में जलता रहा,
संग कांटों के चला, खुद को ही छलता रहा।
हो गया लहूलुहान, फिर भी धैर्य चुका नहीं,
तम मिटाने के लिए, वह मोम सा गलता रहा।


उम्र के चढ़ाव पर भी, हार मानी न कभी,
पात पात झर गए, रार ठानी न कभी।
खुद के गुजरते कारवां का, गुबार देखता रहा,
मौत को ही दोस्त जाना, तकरार जानी ना कभी।

अ कीर्ति वर्द्धन
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