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शिशिर की सौगात कनकनी।।

शिशिर की सौगात कनकनी।।

डॉ रामकृष्ण मिश्र
भाव में डूबा हुआ सा अँगीठी का मन
घेर कर बैठा रहा हे गाँव का बचपन!
थरथराते हाथ सेके पकाये आलू
भोर होते धूप से होती कहा सुनी।।

चिरगुनी कलरव नहीं ंजगता जगाता है
कोटरों में भूख अपनी खुद चबाता है।
जंगलों का राग शहरी छंद रचता है
मेघ की निश्पक्षता से हुई अनबनी।

रंध्र रोधी बाँसुरी की विकलता सोई
नेह की वे भंगिमाएँ सब कहाँ खोई।
पर्वतों की तलहटी में शून्यता पसरी
कहीं से आ सके तो कोई किरण कनी।।
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रामकृष्ण

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