दीया जब बुझता है 🪔
यह युगों युगों का युद्ध हैंसदियों से चला आ रहा
अंधकार और प्रकाश का
पलड़ा भारी हल्का होता जाता
दीया को जब बुझना होता हैं
सहज सरल भाव से नहीं होता है
जल जल कर बुझता है
बुझ बुझ कर जलता है
आशा निराशा की बाती
में पलता है
तेल कम हो तो और तेल डलता हैं
फिर से ज्योतिर्मय होकर
तिमिर से यह लड़ता है
लेकिन जब तमस की आंधी आती
दीपक के लौ को बुझाती
फिर से घोर अंधियारा छाता
ठहाका लगा उपहास करता वो
जीवन का चक्र भी कुछ ऐसा है
84 लाख योनियों में जन्म लेता हैं
जीवन मृत्यु के मायाजाल में
फसता हैं और मुक्त होता है
कर्मफल के अनुसार चलता हैं
मोह का तम छटता हैं
सूर्य की रश्मि के आलौकिक ज्ञान से
पदीप्ति नवल कांतिमय होकर
मोक्ष पाकर तब बैकुंठ की ओर
प्रस्थान करता हैं।
स्वरचित
ऋचा श्रावणी
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