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कल शाम मैं पैदल एक

कल शाम मैं पैदल एक,

रास्ते से जा रहा था ।
आंखों के सामने कुछ ,
अजीब नजारा आ रहा था।
कड़ाके की सर्दी थी,
उस पर मौसम की बेदर्दी थी।
फुटपाथ पर कुछ गरीब ,
आसमान तले कंबल ओढ़े सो रहे थे ।
सर से पांव तक कांप रहे थे ,
लगता था भीतर भीतर रो रहे थे ।
वहीं बगल में अनेक टेंट लगाकर ,
फुटपाथ पर व्यवसाय हो रहा था।
खुब भीड़ में मकर संक्रान्ति हेतु ,
तिलकुट चूड़ा बेंचा जा रहा था।
एक तरफ गरीबी की मार ,
दूसरी तरफ कमाई की भरमार।
यहां प्रशासन अंधा गूंगा है,
इंसानियत लगता मर गई है।
जितना भी चिखो चिल्लाओ ,
यहां कानून व्यवस्था सड़ गई है । 
जय प्रकाश कुंअर
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