गुरू भी योग्य शिष्य की तलाश मे रहता है। विवेकानन्द जयन्ती पर विशेष आलेख।
आलेखक : प्रभाकर चौबे चिंतक विचारक ।
वह नरेन्द्र था । गोरा चिट्टा नवजवान। अंग्रेजी संस्कृति मे पला बढा।
दक्षिणेश्वरी काली मन्दिर पहुंच गया ।परमहंस राम कृष्ण के आश्रम मे उनकी ख्याति सुनकर ।की वे भगवती काली का दर्शन किये हैं और अपने हाथ से खिलाते भी हैं ।
उसके चेहरे पर तेज था। उसने भी सुसुप्तावस्था / अर्द्ध चेतनावस्था मे प्रकाशित आभा विन्दु का दर्शन किया था भ्रृकुटि मध्य मे ।जिसको मै भी देख चुका हूँ काॅलेज लाईफ मे।
उसने रामकृष्ण परमहंस से पूछा की क्या आपने ईश्वर को देखा है ?
स्वामी जी के मुखारविन्द से निकला
'हाँ '।
जैसे तुम्हें देख रहा हूँ उसी तरह देखा हूँ ।
उस तेजस्वी नवयुवक ने जिद की मुझे भी दिखा सकते हैं ।
गुरू ने योग्य शिष्य की पहचान कर ली। वह आता फिर चला जाता । लेकिन उसके मन मे ऊथल पुथल थी । उसका मन कहीं नहीं लगता था ।वह फिर आ जाता । गुरू और शिष्य के बीच का यह सम्मोहन टुटने का नाम ही नहीं ले रहा था।
एक दिन गुरू ने उसके बाँह पकडे और उसके छाती पर लात रख दिये । वह नवयुवक महाशुन्य मे तैरने लगा। उसे भय की अनुभूति होने लगी ।
उस महाशुन्य की यात्रा तो भयप्रद है ही । अनजान डगर है। आदि गुरू शंकराचार्य जी भी जब उसमे प्रवेश किये तो मन भयभीत होने लगा था जबकि गुरू गोविन्द पाद की अहैतुकी कृपा से उनकी कुण्डलिनी जाग्रत हो चुकी थी ।वे शिव अंश थे ही शिव रूप हो भी चुके थे । यह माया के ऊपर महामाया का आवरण है जिसको भेदने के बाद जीव ब्रह्म मे समाहित हो जाता है। उस विन्दु पर एक अज्ञात भय उत्पन्न होता है।
छाती पर गुरू का चरण स्पर्श एक शक्तिपात था ।
जिसतरह से कोई राॅकेट पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की परिधि से बाहर होते समय विशेष बल की जरूरत महसूस करता है या जैसे एक गर्भस्थ बच्चा गर्भ से निकलते समय बाहर की दुनिया देखकर डर जाता है और रोने लगता है। या किसी को पहली बार नशीला पदार्थ खिला दिया जाय और वह नशे मे ऊडने लगता है या एकाएक तेज गति मे कोई ऊडने लगे और ब्रह्माण्ड का चक्कर काटने लगे ऐसी भयानक स्थिति का अनुभव हुआ । साधक जब इस स्थिति को प्राप्त करने लगता है तो सिद्ध गुरू न संभाले तो मानसिक स्थिति बिगडने का डर रहता है। मेरे सिर मे तो बीटा आवेश सिर के अग्र भाग मे जमा हो गया था ।मन बैचैन हो गया था ।पढने से मन भाग गया था ।कोई गुरू नही थे । तीनो त्रिलोक मे हम अनाथ हो चुके थे । लेकिन नाथो के नाथ भगवान शिव का एक लिंग प्रकट हुआ ।जिसमे आँख थी और दोनो तरफ से नाग फन काढे खडे थे। वह शिव लिंग जोर से मेरे ललाट के अग्र भाग से टकराया ।मुझे झटका सा लगा और विद्युत विसर्जन हुआ । ऐसा तीन बार हुआ। शिव लिंग आया और गया।मेरे सिर पर एक हल्ला मच्छड काटने जैसा बन गया लाल निशान । चार बजे भोर की घटना थी ।मै आई एस सी मे पढ रहा था। मुझे बुखार हो गया। माता जी ने सिर पर तेज मले । बुखार ज्यादा देर रहा नहीं । आधा घंटा एक घंटा रहा होगा। उसके बाद मेरा दिमाग उस शुन्यावस्था से मुक्त हो गया और मै पढने लायक हो गया।भगवद् गीता पढता था और विचारशुन्यता की स्थिति लाने की कोशिश करता था।विचार शुन्यता की स्थिति के लिए हठयोग करते थे । ठंढ मे भी अर्द्ध वस्त्र मे साधना करते थे जिससे ठंढ लगते लगते दिमाग मे ठंढ घुस गया था ।जो बाद मे साईनस का कारण बना।
विवेकानन्द जी को तो सिद्ध गुरू अपने नियंत्रण मे रखकर उनकी मानसिक क्षमता के हिसाब से काफी सुरक्षित ढंग से महाशून्य मे ले जा रहे थे। तीन दिन नरेन्द्र समाधिस्थ रहे।
समाधि टुटते ही नरेन्द्र विवेकानन्द बन चुके थे। गुरू ने उन्हे पहचान लिया था की वे इस योग्य हैं । सुचालक हैं यानी ताम्बे की तार के समान हैं । जिसमे अपनी शक्ति प्रवाहित कर सकते हैं ।
विवेकानंद ने गुरू कृपा से ज्ञान हासिल कर लिया बिना साधना के । उन्होने धर्म को समझ लिया की मानवता और जीव मात्र पर दया ही धर्म है। आजीवन मानवता की सेवा और सनातन धर्म संस्कृति के प्रचार प्रसार मे लगे रहे।
वस्तुतः रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द उन्हें जिस दिन के लिए बनाया था वह दिन भी आ गया। उनकी अंग्रेजी अच्छी थी और विदेशो मे सनातन धर्म संस्कृति को जान लेने पर प्रचारित कर सकते थे।देश गुलाम था । भारतीय संस्कृति खतरे मे थी। विदेशियो ने भारत को टोना टोटका का देश मान लिया था ।यहाँ की उदात्त धर्म संस्कृति का उन्हें ज्ञान नही था।
शिकागो मे एक विश्व धर्म सम्मेलन आयोजित था । उसमे भारतीय सनातन धर्म संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने स्वामी विवेकान्द जी गये। गुलाम और टोना टोटका का देश समझकर उनको उतना तवज्जो नही मिल रहा था। लेकिन गुरुकृपा से सभा को उद्बोधित करने का शुभ अवसर आ गया । उन्होंने अपने गुरू देव का स्मरण किया । उस समय तक गुरू देव समाधिस्थ हो चुके थे ।लेकिन आत्मा तो अमर है। सिद्ध पुरूष तो जाग्रत रहते हैं भक्तो का कल्याण करने के लिए । जैसे सैटेलाईट जुड जाता है ।उसीप्रकार स्वामी विवेकानंद जी टैलीपैथी से श्री रामकृष्ण परमहंस जी से जुड गये ।उन्हें पता भी नही था की क्या बोल रहे हैं । गुरू उनके सिर पर चढकर बोल रहे थे । पूरी दुनिया इस गुलाम लुटे जाने से गरीब हो चुके कभी के समृद्ध भारत के सनातन धर्म दर्शन के आगे नतमस्तक हो गया।
विवेकानन्द जी ने रामकृष्ण मिशन आश्रमो की स्थापना की।
गरीबो अकाल पीडितो की सेवा और धर्म प्रचार मे पूरी जिन्दगी लगा दी।
अकाल के समय भी पीडितो की सेवा मे लगे रहे। रोटी सुखाकर रखा जाता था जो कडा हो जाता था । खाते समय उसे गर्म जल मे ऊबालना पडता था।
एक बार स्वामी विवेकानंद जी अमरनाथ की यात्रा पर गये ।उन्होने गर्म कपडे नही पहन रखे थे। ठंढ से उनकी छाती चौडी हो गई । लेकिन शिव उनपर ऊतर आये थे वे शिव की स्तुति करते करते भाव मग्न हो गये और शिव लिंग मे अपने गुरू को देख समझ गये की मेरे गुरू तो साक्षात शिव के अंश ही थे।
महान गुरू रामकृष्ण परमहंस जी जो सम्पूर्ण सिद्धियो के स्वामी (मात्र वामार्गी भैरवी सिद्धि को छोडकर )थे उनको नमन ।
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था की मेरे गुरू चाहें तो सैकडो विवेकानन्द पैदा कर सकते हैं । विवेकान्द जी की आयु कम थी । मात्र छत्तीस वर्ष तक ही पृथ्वी पर रहे लेकिन जो कर गये इस भारत भूमि के लिए की अमर हो गये। जब तक सूरज चान्द रहेगा गुरू शिष्यो का नाम रहेगा।
उन्होने गुलाम और हीन मानसिकता से युक्त हिन्दुओ को कहा की गर्व से कहो "हम हिन्दु हैं "। महान राष्ट्रवादी संत स्वामी विवेकानंद जी की जन्म तिथि पर शतशत नमन ।
प्रभाकर चौबे ।
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