तर्कों के मायाजाल में युवापीढ़ी :
(किस हद तक जायज़ समलैंगिकता?)
डॉ रीमा सिन्हा
"हाय दीदी कैसी हो?"अचानक मैसेंजर पर फ़्लैश हुए इस मैसेज का पता नहीं क्यों मुझे तुरंत रिप्लाई करने का मन हुआ।मायके, ससुराल दोनों ही जगह सबसे छोटी रहने की वजह से 'दीदी'सम्बोधन मुझे बहुत अच्छा लगता है क्योंकि परिवार में इस सम्बोधन से मैं वंचित रही।ख़ैर, मैंने रिप्लाई किया मैं ठीक और तुम... ध्यान से डीपी देखी तो समझ ही नहीं पायी कि बहन लिखूँ या भाई लिखूँ क्योंकि भाई जैसी शक्ल, माथे पर बड़ी सी बिंदिया और साड़ी... मेरे असमंजस को भाँपते हुए उधर से मैसेज आया कि दीदी आप मुझे बहन बोलेंगी तो ज़्यादा अच्छा लगेगा। मैं लड़का हूँ पर बचपन से ही मुझे लड़कियों के जैसे रहने का शौक है। आज के ज़माने में भी मैं शायद पुराने ख्याल की हूँ,कुछ चीज़ें जो प्राकृतिक न हों मुझे वो अधिक पसंद नहीं पड़ती। मैंने बस इतना ही कहा कि अगर आपकी ख़ुशी से किसी और को नुकसान न पहुँचे उसमें कोई बुराई नहीं।पर कहीं न कहीं मेरा लेखक मन यही सोच रहा था कि इतने स्मार्ट बंदे को ऐसे किस अवसाद ने घेरा कि इसने अपना हुलिया बदल लिया? विज्ञान की छात्रा और साथ में एक साहित्यकार होने के नाते मैं कभी दिल तो कभी वैज्ञानिक कारणों के विषय में सोचने लगी। तमाम ऐसी घटनायें मेरे इर्द-गिर्द घूमने लगी।जैसे- एक बड़े पार्लर में भी कुछ इसी तरीके के स्टॉफ से मेरा सामना हुआ था। इतना ही नहीं इंस्टाग्राम पर जब रील्स स्क्रॉल कीजिये तो सबसे ज़्यादा हिट रील्स आजकल ऐसे कपल्स के मिलते हैं।
स्वयं दो युवा बच्चों की माँ होने के नाते मैं इस चीज़ से तो भली-भाँति अवगत हूँ कि आज की पीढ़ी को समझाना बहुत मुश्किल है। उनके अपने तर्क या यूँ कहिये कि कुतर्क होते हैं जिनके आगे आप निःशब्द हो जायेंगे। आज की पीढ़ी 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा, जो अच्छा लगे वो करो' में विश्वास रखती है।ऐसा नहीं पुराने ज़माने में समलैंगिक नहीं हुआ करते थे किन्तु समाज में इतना खुलापन नहीं था और सामाजिक एवं पारिवारिक प्रतिष्ठा की वजह से वे कदम आगे नहीं बढ़ाते थे।हालांकि समय के साथ समाज में काफी हद तक समलैंगिकता को ना सिर्फ स्वीकार कर लिया गया है बल्कि कानूनी तौर पर भी इसे मान्यता मिल गई है किन्तु प्रकृति के नियम के विरुद्ध जाना कहाँ तक ठीक है यह अभी भी विचारनीय है। यूँ तो कुछ वैज्ञानिक इसे अनुवांशिक लक्षण भी बताते हैं किन्तु कहीं न कहीं अत्यधिक यांत्रिक जीवन होना भी इसका ज़िम्मेदार है।पारिवारिक दूरी,अकेलापन, इंटरनेट का लगातार इस्तेमाल -इन कारणों से भी समाज में ऐसे रिश्ते अत्यधिक फलीभूत हो रहे हैं। पश्चिमी सभ्यता हम पर इस कदर हावी हुई कि हम अपनी मूल संस्कृति को ही भूल बैठे। पुराने ज़माने में दादा-दादी,नाना-नानी हमें नैतिक मूल्यों की शिक्षा देते थे। एकल परिवार की वजह से अब इन मूल्यों की जानकारी बच्चों को नहीं मिल पाती और अगर कोई समझाये भी तो वो इसका महत्व समझने से इनकार कर देते हैं।सिर्फ लडके ही नहीं बेटियाँ भी इस मामले में कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं।
समय के साथ-साथ बहुत बदलाव आये हैं।आज की युवा पीढ़ी खुलकर किसी भी विषय पर चर्चा करती है जिन विषयों पर एक ज़माने में बोलना भी वर्जित हुआ करता था। विचारों की आज़ादी, बदलाव या व्यापक मानसिकता होना गलत नहीं है किंतु यहाँ तो मनुष्य पूरा इकोसिस्टम ही बदल देना चाह रहा। हो सकता है अपने जैसे पार्टनर की ख़्वाहिश जो उनके जैसी सोच और विचारधारा रखे, जिनकी पसंद, नापसंद उनकी ही तरह हो और जिनके साथ वो सही ताल-मेल बैठा सकें, इस वजह से भी समान सेक्स में विवाह करना उन्हें पसंद आता हो। प्यार में धोखा मिलने का भय भी कम रहता है। प्राचीन संस्कृतियों में समलैंगिकता के संबंध में सर्वाधिक प्रमाण कुछ चित्रकारियों से प्राप्त होते है।आज सरकार द्वारा ऐसे संबंधों को कानूनी तौर पर मान्यता मिलने की वजह से इसे छिपाने की ज़रूरत नहीं पड़ रही। ऐसा नहीं कि पहले की तुलना में अब अधिक समलैंगिक हैं लेकिन अंतर स्वीकृति का है। अब ऐसे तथ्यों को छुपाने की ज़रूरत नहीं रही।फिर भी इनकी बढ़ती हुई संख्या एक चिंता का विषय है।सिर्फ भारत की बात की जाये तो आज २५ लाख पुरुष समलैंगिक हैं और सात प्रतिशत से ज़्यादा एचआईवी से संक्रमित हैं।
संक्षेप में, संस्कृति बदल रही है। जीवन मूल्यों और सिद्धांतों से ज़्यादा तर्क प्रभावित हो गया है।स्वयं की खुशियों को अब ताख़ पर रखना किसी भी कीमत पर लोगों को मंज़ूर नहीं।देश के विस्तारवाद के साथ युवाओं का मानसिक विस्तार इतना अधिक बढ़ गया कि वे अब सोचने समझने को तैयार ही नहीं। कई तर्कों को मद्देनज़र रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ज़रूर इन सम्बधों की स्वीकृति दे दी है लेकिन जो अप्राकृतिक है वो कहीं न कहीं नुकसानदेह साबित होता है, ये ज़रूर समझना चाहिए।
डॉ रीमा सिन्हा लखनऊ
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