Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

जबतक तुम थी तबतक ही यह दुनिया भी दुनिया थी

जबतक तुम थी तबतक ही यह दुनिया भी दुनिया थी 

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
जबतक तुम थी तबतक ही यह दुनिया भी दुनिया थी ,
अब सरायफानी है, जो गुलमोहर की बगिया थी।
मत्लबपरस्त आलम में सबकुछ बेगाना लगता है ,
काँटों का बिस्तर है, जो तब फूलों की सजिया थी।
साँस साँस में पिरो गई है याद तुम्हारी, प्राण!
इस मुहीब की आँखों में शीरीं से भी बढ़िया थी।
रात-रात लगती है जैसे जहर पी रहा हो सुकरात,
जीवन के जख़्मों की खातिर मरहम की मलिया थी।
मुझे माफ कर देना साथी,जो गुनाह कुछ भी हो,
मैं नटखट बच्चे-जैसा, तुम सोने की गुड़िया थी ।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ