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न्यायपालिका में वंशवाद और इसके दुष्परिणाम

न्यायपालिका में वंशवाद और इसके दुष्परिणाम

- मनोज कुमार मिश्र
भारतीय न्यायपालिका खास तौर पर उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक ठीक उसी प्रकार वंशवाद के शिकार है जिस तरह भारतीय राजनीति। राजनीति तो फिर भी आलोचना और कटु विवेचना सहने को प्रस्तुत है पर न्यायपालिका इस बारे में कुछ भी सुनना, पढ़ना या मौखिक विवेचना भी पसंद नहीं करती। भारतीय न्यायपालिका की इसी विद्रूपता को खत्म करने हेतु भारत सरकार NJAC लाई थी यानी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग। विडंबना देखिए सरकार के इस बिल को उन्ही लोगों ने असंवैधानिक करार दे दिया जिनमे शुचिता लाने को यह बिल प्रयासरत था। यानी न्यायपालिका ने कह दिया कि मैं चाहे जो करूं आप इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते। न्यायपालिका का कॉलेजियम सिस्टम जारी रहेगा। कॉलेजियम यानी वो कमिटी जो गिने चुने लोगों के द्वारा है, जिसकी कोई वैधता को चुनौती नहीं दे सकता। इस सिस्टम ने कुछ ऐसा माहौल तैयार किया है कि आप उन लोगोंको छू भी नहीं सकते जिनके बाप दादा कभी सर्वोच्च न्यायालय में जज हो गए। जनमानस से तीस्ता सीतलवाड़ का मामला अभी भी विस्मृत नहीं हुआ है जब मुख्य न्यायाधीश ने एक रात्रि में ही रहे सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान तीन बार उठकर केवल मामले को सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल किया वरन इसके लिए मनमुताबिक पीठ का गठन किया और उसे तत्काल गिरफ्तारी से मुक्ति प्रदान की। यही नहीं बाद में भी तीस्ता को गिरफ्तार करने पर ही रोक लगा दी सिर्फ इसलिए कि उसके दादाजी कभी भारत के प्रथम महान्यायवादी थे। जबकि उस पर आरोप अपराधिक प्रकृति के थे। अभी पिछले दिनों सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति श्री के एम जोसेफ धर्मनिरपेक्षता पर बड़ी जोर शोर से भाषण दे रहे थे, ये वही न्यायाधीश है जो तमिलनाडु में ब्राह्मणों पर अत्याचार और हत्या के मसले पर कोर्ट में बैठकर मुस्कुरा रहे थे। मजे की बात यह है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश और न्यायमूर्ति के एम जोसेफ बचपन के मित्र हैं। जहां जोसेफ के पिता सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे वहीं चंद्रचूड़ के पिता खुद मुख्य न्यायाधीश थे। यानी जज का बेटा जज, मुख्य न्यायाधीश का बेटा मुख्य न्यायाधीश।
बहुत से लोगों को आश्चर्य यह भी होता होगा की ये अभिषेक मनु सिंघवी कैसे उस सेक्स प्रकरण में बच गया तो आपको जानकारी दे दें कि अभिषेक भी चंद्रचूड़ जी का बचपन का दोस्त है। अब दोस्त है तो यारी निभानी ही पड़ेगी। फिर यही लोग दूसरों को नसीहत देंगे और सजा भी सुनाएंगे।
बंगाल के संदेशखाली में इतना बड़ा कांड हो गया पर इनके कान पर जूं नहीं रेंगी जबकि मणिपुर पर यही जज लोग ऐसे विलाप कर रहे थे जैसे भारत में आज तक ऐसा हुआ ही नहीं हो। दुर्भाग्य देखिए कि संदेशखाली की याचिका खारिज करने वाली न्यायमूर्ति खुद स्त्री हैं। माननीय न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना स्त्री हैं और इस पिटीशन को सुनते वक्त मुस्कुरा रही थीं उनकी टिप्पणी थी की आप दोनो मसलों की तुलना नहीं कर सकते। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय आधी रात को एक आतंकवादी के लिए खुल सकता है पर साध्वी प्रज्ञा पर हुए अत्याचार उसके संज्ञान में नहीं आते। हल्द्वानी में गैकानूनी अप्रवासियों को राहत देने तो तत्पर है चाहे बाद में चाहे दंगे ही क्यों न हो जाएं पर हिंदू मंदिरों को कोई राहत नहीं मिलने चाहिए।
जब इस कदर घटाटोप अंधेरा न्यायालय के सर्वोच्च आसन पर हो तो समाज क्या करे। समय आ गया है की वह आंदोलनों लेखों वाद प्रतिवाद के द्वारा इसमें सुधार लाने का प्रयास करे। ज्ञानवापी और कृष्ण जन्मभूमि में ऐतिहासिक साक्ष्य है लिखित दस्तावेज हैं पर निर्णय लटका ही रहेगा क्योंकि न्यायमूर्तियों की दृष्टि और दृष्टिकोण दोनो अंधकार में हैं। आज इस व्यवस्था को बदलने की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा है क्योंकि सरकार इस मामले में नपुंसक साबित हो चुकी है।
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