कितना साफ़ई से

कितना साफ़ई से

दिन-रात बोलता है झूठ
शायद उसे भी पता नही
सत्य को झूठ और झूठ को सत्य
करने के अपने दम्भ में
मर्यादा की बात करता है
अमर्यादित शैली में
उगे गाजर घास की तरह
खेत को नष्ट कर रहा
कहता है मैं मालिक हूँ
इस जमीन का
पोषक हूँ जगह और जमीन का
परिवार का समाज का
जिसके अंदर घृणा के
बीज अंकुरित होते हैं
अहर्निश उसके दंभ में
परिवाररूपी बृक्ष की जड़ो में
जो घोल रहा बिष है
कहता है
बट- बृक्ष का पोषक हूँ
शाखाओं और प्रशाखाओं पर
बैठ बैठ जिसने सीखी है
कलाबाजी करने का गुण
वह कालिदास !
डाल नही बृक्ष से तोड़ लिया है
अपना संबंध
वही आज कर रहा है
समाज उद्धार का अनुबंध
अरविन्द कुमार पाठक "निष्काम"
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