मगध

मगध

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•

(पूर्व यू.प्रोफेसर)
मुझे बड़ी हैरानी होती है यह देखकर कि अच्छे-खासे सुपठित लोग भी 'मग'(शाकद्वीपीय ब्राह्मण) का संबंध मगध से दिखाने किंवा व्युत्पन्न बतलाने की जुर्रत करते हैं --' मगं दधातीति मगधः '--जब कि वस्तुतः यह समझ बिलकुल अलीक, निराधार व अनर्गल है। 'मगध ' शब्द 'याचना 'के अर्थ में है--"मगध्यति याचते ।मगध इति याच्ञार्थे (अमरव्याख्यासुधा)।"मगध एक जनपद के रूप में दक्षिण बिहार का प्राचीन नाम है। यह छियानबे कोस पूर्व-पश्चिम और चौंसठ कोस उत्तर-दक्षिण है। अमरकोषकार ने--''मागधास्तु मगधा:'',मगध और मागध-इन दोनों शब्दों को पर्यायतः 'वंशपरम्परा-शंसक '(जो राजदरबारों में रहा करते थे) के अर्थ में लिया है। मागध, वन्दी (वन्दना करने वाला),वैतालिक (प्रातर्जागरणकारी)आदि राजदरबारों में आश्रित होते थे।
यथापूर्वोक्त, मगध 'मगध्यति याचते'(याच्ञा)के अर्थ में गृहीत है। माधवीय धातुवृत्ति में "मगध परिवेष्टने नीचदास्ये इत्येके (मगध्यति)"कहा है। इस शब्द की नीचार्थकता स्पष्टतः निर्दिष्ट है।
प्रसंगानुरोधतः यह तथ्य सविशेषतया ध्यातव्य है कि मगध का सर्वाधिक प्राचीन वैदिक नाम 'कीकट 'है। यह अनार्य जाति द्वारा अध्युष्ट प्रदेश था, जो अनार्य-प्रमुख प्रमगन्द द्वारा शासित था, जिसकी पुष्टि ऋग्वेद (3/53/14)से प्रौढतया होती है।ऋग्वेद के 'प्रमगन्द 'शब्द के आधार पर ही 'मगध ' की व्युत्पत्ति मान्य है। अभिधानचिन्तामणि में भी उल्बणतया उक्त है--"कीकटा: मगधाह्वयाः "।अथर्ववेद (5/22/14)में भी 'मगन्द 'शब्द प्राप्त है--"गन्धारिभ्यो मूजवभ्योऽङ्गेभ्यो मगन्देभ्यः ।"
मगध का क्षेत्र अन्यथा भी हमारे शास्त्रों-पुराणों में दूषित माना गया है। गुरु-द्रोह से अभिशप्त चाण्डालभूत त्रिशंकु के रथ की छाया पड़ी हुई है इस क्षेत्र में। सदेह स्वर्ग जाने की चाण्डालभूत त्रिशंकु को महर्षियों से यज्ञ-विशेष करा कर और अपने तपोबल से विश्वामित्र ने सदेह स्वर्ग भेजने का उद्यम तो किया, किंतु देवताओं ने स्वर्ग में वास प्राप्त होने नहीं दिया, वहाँ से धकेल दिया। औंधे मुँह निपतित होते त्रिशंकु को बीच में ही रोक दिया। उन्हीं के लार,मल-मूत्रादि से 'कर्मनाशा ' नदी बनी कर्मनाशा नदी शाहाबाद के कैमूर पहाड़ से निकल कर चौसा के पास गङ्गा जी से मिली है। प्राचीन काल में कर्मनिष्ठ आर्य ब्राह्मण इस नदी को पार कर कीकट (मगध)देश में नहीं जाते थे। कर्मनाशा, अतएव, नरकदायिनी है। त्रिशंकु की कथा वाल्मीकि-रामायण (1/57)में द्रष्टव्य है। मगध शब्द का ही संक्षेप में 'मग ' का प्रयोग 'नामैकदेशे नामग्रहणम् 'के न्याय से गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस (1/6/8)में यों किया है--"कासी मग सुरसरि कबिनासा। मरु मारव महिदेव गवासा। ।" कबिनासा =कर्मनाशा। मगध के लिए केवल मग शब्द के प्रयोग की तरह संस्कृत-वाङ्मय में बहुत प्राप्त होते हैं;यथा बन्दरों को माखन लुटाते बाल कृष्ण की लीला के वर्णन में मर्कट के स्थान पर 'मर्क'शब्द का प्रयोग देखिए--"मर्काय कामं ददतं शिचि स्थितम् (श्रीमद्भागवत-10/9/8)।"
तथ्य को समझने के लिए इतना काफी है, उदाहरणों का अंबार लगाना अनावश्यक है।
तुलसीदास ने अन्यत्र भी 'मगध' का हीनार्थक प्रयोग किया है;यथा-"लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे (मानस-2/43/7)।"
कहना अनावश्यक है, अन्य सभी तीर्थ देवतीर्थ हैं, जब कि मगध-स्थित गया प्रेत तीर्थ है, गयासुर को लक्ष्य कर आसुरतीर्थ भी है। पितरों के उद्धार के लिए देश-विदेश से लोग यहाँ आते हैं। पितरों के उद्धारक की दृष्टि से पुण्यतीर्थ है। गरुडपुराण (83/1)में मगध में चार तीर्थ कहे गए हैं--"कीकटेषु गया पुण्या पुण्यं राजगृहं वनम्। विषयश्चारणः पुण्यो नदीनाञ्च पुनःपुनः। ।"
उपरिष्ट सार-संक्षेपतः प्रमाण-द्रढित विवरण के आलोक में दिवालोक की नाईं यह तथ्य स्पष्ट है कि 'मगध 'के व्युत्पादन में शाकद्वीपीय ब्राह्मण-वाची 'मग ' शब्द का आधार-ग्रहण मूर्खता की पराकाष्ठा है। यहाँ मैंने अंगुलिनिर्देश-मात्र किया। इस विषय का यथेष्ट प्रतिपादन वस्तुतः एक विशाल ग्रंथ का अपेक्षी है। आज के दौर में स्वतन्त्र बौद्धिक चेतना एवं गहन-सूक्ष्म स्वाध्याय का अभाव अत्यंत दु:खद है। हवा में उड़ते तिनकों को पकड़कर अनर्गल प्रलाप करने की प्रवृत्ति गगनचुम्बी हो उठी है। इतनी भी बात लोगों की समझ में नहीं आती कि मगध शब्द की व्युत्पत्ति 'मग '(शाकद्वीपीय ब्राह्मण)के आधार पर दिखलाने की कुचेष्टा से मग ब्राह्मणों का गौरव बढ़ता नहीं, अपितु रसातल में जाता है।हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

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