रिश्तों के उलझे तार

"रिश्तों के उलझे तार"
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उलझ सी गई है ज़िन्दगी भी अब तो,
उलझे से रिश्तों को सुलझाने में ही।

हर पल नया मोड़, हर कदम नया झमेला,
जैसे उलझनों का जाल, जीवन में बिछा है।

प्यार, दोस्ती, परिवार, हर रिश्ता उलझन में,
सुलझाने की कोशिश, हर बार नाकाम।

कभी भ्रम, कभी ज़िद, कभी अहंकार,
रिश्तों की डोर, टूटने की कगार।

मन करता है, सब छोड़कर भाग जाऊं,
पर रिश्तों की डोर, मुझे खींच लाती है।

फिर कोशिश करता हूं, सुलझाने की,
उलझनों का तार, खोलने की।

कुछ रिश्ते टूटते हैं, कुछ रिश्ते जुड़ते हैं,
ज़िन्दगी का खेल, अबाध चलता रहता है।

उम्मीद है, कभी सब सुलझ जाएगा 'कमल',
रिश्तों की डोर, फिर से मजबूत हो जाएगी।

. स्वरचित, मौलिक एवं पूर्व प्रकाशित
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)

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