बेटे बहुत सयाने निकले हैं उसके,
क्या कहना चुप ही रहती है माँ।
दूध दही देती थी कल तक बच्चों को,
आँसू आज पिया करती है माँ।
घर पर अब अधिकार है बेटे -बहुओं का,
टुकुर-टुकुर देखा करती है माँ।
झिड़की ताने ही आए उसके हिस्से,
सजा ये क्यों सहती रहती है माँ।
बुढ़ी हड्डियों में कितनी सी जान मगर,
दर्द पहाड़ों सा सहती है माँ।
एक बोझ सी बनी हुई अपने घर में,
मगर दुआ देती रहती है माँ।
घर के इक कोने में अपने बिस्तर पर,
घुटन तनावों को सहती है माँ।
अपने प्राणों से जिस गुलशन को सींचा,
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