चाहा ही नहीं, जिसको कभी दिल ने,
उसका क्या पाना, और क्या खोना।मुसाफिर की कोई मंजिल नहीं होती,
आज एक मिली, कल नया ठिकाना।
चाहा था जिसे मैंने, वो खुदा तो ना था,
पर दिल नहीं चाहता अब उसे खोना।
बंजर थी भूमि, जो मेरे हिस्से में आयी,
चाहता हूँ उसमें, फसलों को संजोना।
बाँट ली जायदाद, सभी भाईयों ने मिलकर,
मुझे बेदख़ल कर दिया, बताकर खोटा सोना।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
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