"भीड़ भरे शहर का तन्हा मकान"
इस भीड़ भरे शहर कातन्हा मकान हूँ मैं,
किसी को कुछ भी
कैसे बताऊँ बेज़ुबान हूँ मैं।
दीवारों पर मेरे,
उम्र के निशान हैं,
हर पल कहानी सुनाते,
ज़िंदगी के तूफ़ान हैं।
खिड़कियों से झांकता हूँ,
हर रोज़ तन्हां तन्हां मैं,
देखता हूं लोगों को,भागते हुए,
ज़िंदगी के इस मैदान में।
कभी खुश होते हैं,
कभी रोते हैं,
कभी हंसते हैं,
कभी गम में खोते हैं।
मैं देखता हूँ सब कुछ,
लेकिन कह नहीं सकता कुछ,
क्योंकि मैं हूँ बेज़ुबान,
भीड़ भरे शहर का तन्हा मकान।
मेरे कमरों में गूंजती हैं,
कभी बच्चों की हँसी,
कभी प्रेमियों की नोक-झोंक,
कभी परिवार की रौनक।
लेकिन आज सब कुछ है सुनसान,
क्योंकि मैं हूँ अकेला,
भीड़ भरे शहर का
इक तन्हा खंडहर मकान।
मेरी दीवारों पर टंगे हैं,
कई तस्वीरें,
जो याद दिलाती हैं,
बीते हुए दिनों की।
जब घर में था शोर,
जब परिवार था इकट्ठा,
जब खुशियाँ थीं अपार,
लेकिन अब सब कुछ है खोया,
क्योंकि मैं हूँ अकेला,
निर्जन, वीरान और सुनसान,
इस भीड़ भरे शहर का 'कमल',
इक निर्विकार तन्हां खंडहर मकान।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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