तुम्हारे शब्दों में स्थान मेरा क्यों रिक्त
उर वीणा को मेरी जो करता झंकृत,
शब्दों को मेरी जो करता अलंकृत,
झलकती जिसकी छवि इन नयनों में,
अश्रुनीर कभी बन बहता अपरिचित।
ज्यों निशा हो दिवा मिलन को व्याकुल।
गढ़ती हूँ, रचती हूँ, जिसमें बसती मैं,
फिर भी नित विरह-विष पीती मैं,
देख मुझे हाल तुम्हारा सब हैं पढ़ लेते,
खुद से भी ज्यादा तुझको जीती मैं।
फिर तुम्हारे शब्दों में स्थान मेरा क्यों रिक्त?
क्षण भर दे दो जगह हृदय कर दो विलसित।
डॉ रीमा सिन्हा (लखनऊ )
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