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बस खेल -खिलौने सा जीवन !!

बस खेल -खिलौने सा जीवन !!

(अर्चना कृष्ण श्रीवास्तव)
बस खेल - खिलौने सा जीवन !
पल - दो- पल में टूट गया ।
यह धागा है कितना कच्चा,
अनचाहा राह में छूट गया !!
बिन सोचे बाँधा, यत्न किया ,
बिन सोचे खोला , तोड दिए ।
कच्चे मिट्टी के दीये सदृश ,
कहीं जला दिया, कहीं छोड दिए ।
कहीं भभक उठे भावों के तेल ,
कहीं तेल बिना लौ-हीन किए ।
ये विचारों के उठा -पटक ,
रिश्तों को हैं बलहीन किए ।
ये बाँध पराए- अपनो के ,
ये खड्ग अतल- पातालो के ।
सम और विषम के साज सभी,
हैं सीमा कटुक दीवारों के ।
कहीं आग है अंतःस्थल का ,
कहीं राग विषम अनुरागो का ।
कहीं आँसू हैं आधातो के ,
कहीं दर्द है चोटों- छालों का ।
कहीं प्रीत की दर्द भरी गाथा ,
कहीं स्नेह का दर्द भरा बंधन ।
कहीं वियोगो आह सिन्धु ,
हर ओर है ज्वाला-अनुबंधन ।
कहीं क्षमा सिसक रही राहों में,
कहीं करूणा आह में लीन हुई ।
कहीं ममता फूट-फूट रोई ,
कहीं दया विपथ-तल्लीन हुई ।====( अर्चना)
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