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झेल रही हैं घर के भीतर

झेल रही हैं घर के भीतर

झेल रही हैं घर के भीतर, जो बहुओं की मनमानी को,
उनसे जाकर पूछो सखियों, पीड़ा की नई कहानी को।
तरस रही हैं आँखें जिनकी, बच्चों के संग समय कटे,
आज निगाहें दर पर उनकी, बहुओं की अगवानी को।


पापा हम दिल्ली में रहते, अब घर दिल्ली में ही ले लो,
गाँव का घर बेच बाच कर, अब दिल्ली को आप चलो।
बिकते ही घर बहुएँ बोली, दिल्ली बहुत ही महंगी है,
हम इंतजाम करेंगे कुछ, तब तक आप गाँव में रह लो।


यह भी सच का एक पहलू, माना सब ऐसे न होते,
वृद्धाश्रम क्यों कर खुलते, इस पर भी कुछ तो बोलो?
हमने तो बस सच दिखलाया, जरा झूठ का ध्यान दिलाया,
आँख खोलकर खुद की देखो, हम पर तुम यूँ न खौलो।

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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