चाँदनी आई दरीचे से, रुकी कुछ देर,
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•(पूर्व यू.प्रोफेसर)
चाँदनी आई दरीचे से, रुकी कुछ देर,
फिर अँधेरे में कहीं वह खो गई।
खुली आँखें ढूँढ़ती ही रह गईं अविराम,
रात मेरी गोद में ही सो गई ।
पतझड़ों में झड़े पत्ते धूल में मिल गए,
तमन्नाओं का शजर है आदमी।
पुरनमी जो दिख रही दुनिया की नजरों में,
आग अन्तर में सँजोए है शमी।
बागबाँ की निगहबानी रह गई नाकाम,
बर्फबारी ने उजाड़ा ही चमन।
फिर पसीनों से, लहू से तरबतर इंसान,
जूझता है खातिरे चैनोअमन।
ढहे जर्जर भवन, नूतन भवन बसते गए,
और भी कितने, न जाने, बसेंगे।
जान छोड़ेगा नहीं गृह-मोह जबतक जरठ,
खुली आँखें ढूँढ़ती ही रह गईं अविराम,
रात मेरी गोद में ही सो गई ।
पतझड़ों में झड़े पत्ते धूल में मिल गए,
तमन्नाओं का शजर है आदमी।
पुरनमी जो दिख रही दुनिया की नजरों में,
आग अन्तर में सँजोए है शमी।
बागबाँ की निगहबानी रह गई नाकाम,
बर्फबारी ने उजाड़ा ही चमन।
फिर पसीनों से, लहू से तरबतर इंसान,
जूझता है खातिरे चैनोअमन।
ढहे जर्जर भवन, नूतन भवन बसते गए,
और भी कितने, न जाने, बसेंगे।
जान छोड़ेगा नहीं गृह-मोह जबतक जरठ,
घर बदलते ही बदलते रहेंगे।
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