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"क्या हूॅ मैं"

"क्या हूॅ मैं"

सुनीता सिंह
मैं पल-पल में रचती बसती,
खामोशी का संगीत हूं।
जीवन में जो राह दिखाए,
मैं उस तूफां का गीत हूं।।
शून्य हूं मैं अंतरिक्ष का,
प्रेम पसरा खालीपन सा।
पुनीत है पर पीड़ादायक,
एकाकीपन की मीत हूं।।
मैं मन्द पवन मुस्कान हूं,
वीणा का तार अजान हूं।
शबनम के उजले कतरों की,
सूरज से मिटती प्रीत हूं।।
मैं गहरे अंतस रहती हूं,
ताप प्रीत सब सहती हूं।।
मधुरस या पीड़ा कोहसार,
मैं सब धर्मों की रीत हूं।
मैं जीवन - रण की रानाई,
सुख - दुख सब की परछाई।
क्या हूॅ ये खुद ही न जानूं,
मैं हार कहीं तो जीत हूं।। 
सुनीता सिंह
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