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सँभालती रही वह उम्र भर रिश्तों को,

सँभालती रही वह उम्र भर रिश्तों को,

बहन, बेटी, पत्नी, माँ, बहु सास को,
भुला कर वुजूद, फ़र्ज़ की वेदी पर ,
चुकाती रही प्यार की सब किश्तों को।


कौन कहता है, बिखरी है वह कंकर सी,
रह गई है किसी ढहते हुए खँडहर सी?
उसने उम्र भर एक इतिहास लिखा है,
शीतल हवा है, नहीं किसी बवंडर सी।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
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