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निकले थे सफर में अपना परिवार बोल के।

निकले थे सफर में अपना परिवार बोल के।

नौके ने रख दिया रिश्ते को तौल के।।
अपने ही थे ज्यादा, वे गैर कम हीं थे।
चहक रहे थे अपने, पर गैर मौन थे।।
मझधार में आ नौका भार से डूबने लगी।
अपने पराये सब को तब प्राण की सुझी ।।
अपने कूदे नदी में मुझे अकेला छोड़कर।
गैरों ने मुझको थामा मेरा हाथ पकड़ कर।।
मैं तैरना न जानूँ, अपने सब थे बड़े तैराकी।
अब जान की पड़ी थी, था कुछ भी नहीं बाकी।।
हम साथ ही मरेंगे , गैरों ने ये भरोसा तो दिलाया।
उन चंद गैरों का हौसला , तब मेरे काम आया।।
नाव हल्की हो गई थी, मतलबियों के कुदने से।
आकर लगी किनारे, उन स्वार्थी लोगों के भागने से।।
संकट की घड़ी में जो कभी मुख न मोड़े।
अपना सही वही है , जो दुख मे साथ न छोड़े।। 
 जय प्रकाश कुवंर
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