"लफ्जों की नुमाइश"
लफ्जों में ही पेश कीजिए,अपनेपन की दावेदारियां...!!
ये शहर-ए-नुमाइश हैं,
यहां एहसासों के जौहरी नहीं रहते...!
दिलों में धड़कनें हैं,
पर मधुर धुनों का अभाव है...
आंखों में नमी है,
पर आंसुओं का सैलाब नहीं है...
होंठों पर मुस्कान है,
पर खुशियों का ठिकाना नहीं है...
हाथों में हाथ हैं,
पर साथ का एहसास नहीं है...
लफ्जों में ही पेश कीजिए,
अपनेपन की दावेदारियां...!!
ये शहर-ए-नुमाइश हैं,
यहां एहसासों के जौहरी नहीं रहते...!
यहां रिश्ते हैं,
पर प्यार का नामोनिशान नहीं है...
यहां दोस्ती है,
पर विश्वास का आधार नहीं है...
यहां मोहब्बत है,
पर वफादारी का रंग नहीं है...
लफ्जों में ही पेश कीजिए,
अपनेपन की दावेदारियां...!!
ये शहर-ए-नुमाइश हैं,
यहां एहसासों के जौहरी नहीं रहते
यहां सच है,
पर झूठ का आवरण है...
यहां न्याय है,
पर अन्याय का बोलबाला है...
यहां उम्मीद है,
पर निराशा का साया है...
लफ्जों में ही पेश कीजिए,
अपनेपन की दावेदारियां...!!
ये शहर-ए-नुमाइश हैं,
यहां एहसासों के जौहरी नहीं रहते...!
. पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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