फागुन का भोर
श्री मार्कण्डेय शारदेय
डुमराँव के प्रख्यात साहित्यकार, संस्कृत-हिन्दी के साथ ही भोजपुरी के भी सुकवि आचार्य अम्बिकादत्त त्रिपाठी 'व्यास' बड़े अक्खड़-फक्कड़ एवं मनस्वी व्यक्ति रहे।इनकी गद्य-पद्य की कई कृतियाँ भी प्रकाशित हैं।मेरी पुस्तक 'डुमराँवनामा' में यह भी प्रतिष्ठित हैं।इनका भरपूर सान्निध्य भी मुझे प्राप्त हुआ था।आज फागुन में इनकी एक कविता याद आ गई, जो प्रस्तुत है--
फागुन का भोर
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यह फागुन का भोर, भोर का शोर मचा मन-वृन्दावन में।
टहक-महक जाती पछुआ में डगर-डगर की ताल-तलैया,
सहज समा जाती सपनीली साध सभी के अन्तर् मन में।
यह फागुन का भोर, भोर का शोर मचा मन-वृन्दावन में।
नेहिल मन के पोर-पोर में आकर कोई शोर मचाता,
कोई आँखों के पर्दे पर थिरक-थिरक बाँसुरी बजाता,
देह-गेह क्या? नेह-मेह जब बरस रहे नभ के आँगन में।
यह फागुन का भोर, भोर का शोर मचा मन-वृन्दावन में।
रसा-रसवती, गझिन गन्धवह, स्वरपूरित आकाश,
रस-निर्झर-शीतल-ऊष्मा से ऊर्जस्वल यह साँस,
पिया-मिलन की आस लगाए घूम रही है वन-उपवन में।
यह फागुन का भोर, भोर का शोर मचा मन-वृन्दावन में।
भाव-विभाव दुराव न माने आलम्बन क्या? उद्दीपन क्या?
समाधिस्थ मधुमती भूमिका में क्या जाने आलिंगन क्या?
प्राणों की पहचान बन गई वह मोहक मुसुकान नयन में।
यह फागुन का भोर, भोर का शोर मचा मन-वृन्दावन में।
बूढ़े बरगद के अधरों की लाली, पाकड़ की हरियाली,
पत्रहीन नंगे पलाश की टेसू भरी लहकती डाली,
मन माली का कहाँ चैन पाए, गदराए इस यौवन में।
यह फागुन का भोर, भोर का शोर मचा मन-वृन्दावन में।
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