चिढ़ाती हैं अपेक्षाएँ बिजूक‌े जैसी।। ।।

चिढ़ाती हैं अपेक्षाएँ बिजूक‌े जैसी।। ।।

डॉ रामकृष्ण मिश्र

दृष्टि में जब पूर्णता का भाव उठता है
व्यथित मन भी मुग्धता का स्वांग रचता है
दूर हो जाता समस्या सौंप कर सामर्थ्य
परिघ भी तब तमस से आक्रांत होता है।।
झिलमिलाती प्रेरणाएँ अनावश्यक जैसी।।


द्वार चिंता खड़ी पगली अट्टहासी है
नहीं है कोई किसी का बस उदासी है
खुलेपन के मंच पर है अनावृत नर्तन
मृत अघोषित जल्पना भी रक्त प्यासी है।।
अलक्षित संभावनाएँ हरिण तृष्णा सी।।


बिक गये रिश्ते नगर वीरान दिखते हैं
टाट पर कातिब नये खतियान लिखते हैं
उम्र की ऊँचाइयों पर भी कहाँ तम्बू
सुष्क झरते फूल भी अब कहाँ खिलते हैं।।
वृथा दुर्लभ कामनाएँ व्योम पुष्पों सी।। 
****"""""""""""****रामकृष्ण
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