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बिना बात के कोई बात नहीं होती,

बिना बात के कोई बात नहीं होती,

बिना घात के प्रतिघात नहीं होती।
कुछ तो बात हुई होगी, रहे सालती,
अपनों से दूरी, संयोग मात्र नहीं होती।


उठती टीस बहुत घनी, अपनों की दूरी से,
पत्थर रखकर सहते, जिसको मजबूरी से।
कितने ज़ख़्म फफोले कितने, किससे बोलें,
वही कुरेदे ज़ख़्म हमारे, आदर्शों की छूरी से।


दायित्वों का पालन करना, बस धर्म हमारा है,
सबके हित में जीना मरना, बस कर्म हमारा है।
अधिकार नहीं अपने कुछ भी, सब समझाते,
कर्तव्य पर मर मिटना, बस दायित्व हमारा है।


हैं पीड़ाएँ बहुत घनी, शुष्क नयन में देखो,
जागा करते हैं रातों मे, मेरे नयन में देखो।
ख़्वाब जहाँ पलते थे, सूनापन बाक़ी है,
थे वाचाल भरी महफ़िल, मौन नयन में देखो।

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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