पथ जो मेरे साथ चला
डॉ रामकृष्ण मिश्र
पथ जो मेरे साथ चला,
क्यों रेतीला सा लगता है।।
आँखें वही , दृष्टि शुभ्रा सी
नहीं संकुचित संभ्रम शीला।
पारंपरिक दिए सी शुचिता
फिर भी सब लगता पथरीला।।
ठिगना जो था ढूह कभी अब
क्यों टीला सा लगता है।।
चाँटें कई उपेक्षाओं के
बहुत पास तक आते हैं।
झन्नाटे में अपना सारा
कोप घोल दे जाते हैं।।
पीला पीला पुरो भाव अब
क्यों नीला सा लगता है।।
कोल्हू के बैलों सी आँखें
आवर्णी - प्रतिबंधित हैं ्
दिल की पीड़ा के साँकल से
लाचारी अनुलग्नित है।।
मुसकाते ओठो में कटुतर
क्यों कीला सा लगता है।। ***********रामकृष्ण
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