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हमें चार्ल्स डार्विन नहीं ,आचार्य कपिल चाहिए

हमें चार्ल्स डार्विन नहीं ,आचार्य कपिल चाहिए

भारत बदल रहा है, यह कहना उतना उचित नहीं है जितना यह कहना उचित है कि भारत अपने मूल से जुड़ रहा है। अपनी जड़ों को पहचान रहा है ।अपनी वास्तविकता को जान रहा है। जब किसी भी देश के आम जीवन में इस प्रकार के क्रांतिकारी परिवर्तन की लहर चलती है तो समझना चाहिए कि वह आत्मसम्मान के साथ जीने के लिए लालायित है। वह चाहता है कि वह किसी का पिछलग्गू नहीं बनेगा बल्कि अपनी राहें अपने आप निश्चित करेगा।

संकल्प एक ही धारकर, बढ़ता है जो देश।
नायक बने संसार का, कटते शक्ल क्लेश।।

कुछ दिन पूर्व एनसीईआरटी के द्वारा लिया गया यह निर्णय बहुत ही सराहनीय था कि अब एनसीईआरटी कक्षा 10 की किताब से प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन से जुड़े विकासवाद के सिद्धांत को हटाया जाएगा। एनसीईआरटी की संबंधित पुस्तक में हुए इस बदलाव के बाद बड़ी संख्या में अध्यापकों और वैज्ञानिकों ने इसका विरोध किया। इसके परिणामस्वरूप इस विषय में भारत के शिक्षा राज्य मंत्री सुभाष सरकार ने स्वयं बयान दिया। उन्होंने डार्विन की थ्योरी को हटाने की खबरों को भ्रामक प्रचार करार दिया है। शिक्षा राज्य मंत्री सुभाष सरकार का कहना है कि एनसीईआरटी की 10 वीं कक्षा की विज्ञान की पुस्तक से डार्विन की थ्योरी को हटाने के बारे में भ्रामक प्रचार हो रहा है। शिक्षा मंत्री सुभाष सरकार का ये बयान तब आया है, जब 1800 से अधिक वैज्ञानिकों, विज्ञान के अध्यापकों और शिक्षाविदों ने एक पत्र लिखा था , जिसमें एनसीईआरटी की दसवीं कक्षा की पुस्तक से थ्यौरी ऑफ बायोलॉजिकल इवोल्यूशन को हटाने को लेकर चिंता व्यक्त की गई थी।
यदि सरकार एनसीईआरटी के द्वारा लिए गए निर्णय के विरुद्ध देश के शिक्षा मंत्री के माध्यम से अब इस प्रकार के बयान दे रही है तो यह चिंताजनक है।
माना जा सकता है कि सरकार कई बार अनेक प्रकार के दबावों को तात्कालिक आधार पर अनसुना कर आगे बढ़ने में ही अपना भला समझती है। कई बार वह नहीं चाहती कि अनावश्यक के बाद विवादों को जन्म दिया जाए। हो सकता है केंद्र की मोदी सरकार अभी इस प्रकार के विवादों को ठंडे बस्ते में डालकर आगे बढ़ने में ही अच्छाई समझ रही हो। पर समय वह भी आएगा जब डार्विन नहीं आचार्य कपिल जैसे भारतीय वैज्ञानिक ऋषियों को सम्मान मिलेगा और आज नहीं तो कल सरकार को भारत के जनमानस में मचती हुई क्रांति के सामने झुकना पड़ेगा।

विचार जब पकने लगे, मचलन बढ़ती खूब।
शासक को झुकना पड़े, दिन के धौली धूप।।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत के अनुसार मनुष्य का आदि पूर्वज बंदर है। जबकि भारतीय मान्यता के अनुसार हमारे पूर्वज ऋषिगण हैं। हमारा मानना है कि सृष्टि के प्रारंभ में पूर्ण विज्ञान के साथ हमने आगे बढ़ना आरंभ किया । परमपिता परमेश्वर जो स्वयं ज्ञान विज्ञान के केंद्र हैं ,भंडार हैं, के द्वारा बनाई गई सृष्टि में कोई ऐसी कमी नहीं रह सकती थी जो आगे चलकर किसी कथित विकासवाद के सिद्धांत के आधार पर पूरी होती। ईश्वर अपने आप में पूर्ण है। उसका ज्ञान विज्ञान पूर्ण है। इसलिए उसकी बनाई हुई सृष्टि की गति भी पूर्णता के साथ प्रारंभ हुई, यह तर्कसंगत सिद्धांत है। हमारे ऋषियों ने परमपिता परमेश्वर के दिए हुए वेद के आधार पर सृष्टि की गति और व्यवस्था को बनाए रखने का संकल्प लिया। मोक्ष को प्राप्त मुक्त आत्मा अग्नि ,वायु ,आदित्य, अंगिरा की संतान होने के कारण हमारे ऋषि एक प्रकार से परमपिता परमेश्वर के ही मानस पुत्र थे। इसलिए उनके ज्ञान विज्ञान में किसी प्रकार का कोई दोष या न्यूनता नहीं हो सकती। भारत के इस सिद्धांत को युग युगों तक संसार ने माना है । आज यदि इसमें कहीं कोई दोष दिखाई दे रहा है तो समय वह भी आएगा जब दोष का यह धब्बा भी छूट जाएगा।


डार्विन के सिद्धांत का दोष


जबसे चार्ल्स डार्विन ने हमारे पूर्वज बंदर बताए तबसे अब तक बहुत भारी हानि हो चुकी है। नई पीढ़ी में से अधिकांश बच्चे ऐसे हैं जो इस सत्य को नहीं जानते या जानने का प्रयास नहीं करते कि मनुष्य अपने प्रारंभिक चरण में भी मनुष्य ही था, आज भी मनुष्य है और जब तक यह सृष्टि रहेगी तब तक मनुष्य ही रहेगा। वह मनुष्य था, मनुष्य ही है और मनुष्य ही रहेगा। इस सिद्धांत को या सच को कोई झुठला नहीं सकता, ना ही इसमें किसी प्रकार का कोई परिवर्तन आ सकता। सत्य जैसा कल था वैसा ही आज है और जैसा आज है वैसा ही कल रहेगा। तीनों कालों में जो एक जैसा रहे, वही सनातन होता है। भारत इसी सनातन का उपासक है। भारत की पूरी व्यवस्था जिस दिन हर प्रकार के संकोच और पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर सनातन के इस सत्य स्वरूप की उपासिका हो जाएगी, उस दिन भारत की क्रांति के रथ को संसार की कोई शक्ति रोक नहीं पाएगी।


जब समझेंगे मूल को , सर्वत्र खिलेंगे फूल।
हमको फूल के फूल हैं, गैरों को त्रिशूल।।


केंद्र सरकार को चार्ल्स डार्विन के स्थान पर भारतीय मान्यता को महत्व देकर ऋषि कपिल के सांख्य दर्शन के अंतर्गत दिए गए विकासवाद के सिद्धांत को प्रमुखता देने का कार्य करना चाहिए।
कई ऐसे संगठन हैं जो केंद्र सरकार द्वारा डार्विन की थ्योरी को पाठ्यक्रम से हटाने के उसके निर्णय का विरोध कर रहे थे और सरकार से मांग कर रहे थे कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को वापस लिया जाए। भारत के मौलिक ज्ञान विज्ञान के विरोधी रहे इन संगठनों की दृष्टि में केंद्र सरकार का यह निर्णय पूर्णतया सांप्रदायिक है, जिसके अंतर्गत वह हिंदुत्व की मान्यताओं को देश के सभी लोगों पर थोप देना चाहती है। यह पूर्णतया सिद्ध है कि हिंदुत्व भारत के सत्य सनातन वैदिक धर्म के आर्यत्व का स्थापनापन्न शब्द है , जो पुरातन काल से इस सनातन राष्ट्र की जीवन शैली के रूप में मान्यता प्राप्त रहा है। जैसे भारत के लिए सनातन से अलग होना असंभव है वैसे ही सनातन का हिंदुत्व से अलग होना असंभव है। इसमें किसी प्रकार का सांप्रदायिक भाव देखना, ऐसा सोचने वाले की अपनी मानसिक संकीर्णता का प्रमाण है।


हिंदुत्व और सरकार का दायित्व


हमारा मानना है कि भारत के सत्य सनातन वैदिक धर्म के शुद्ध वैज्ञानिक स्वरूप को यदि केंद्र सरकार विद्यालयों में पाठ्यक्रम के अंतर्गत स्थापित करती है तो इसमें सांप्रदायिकता कुछ भी नहीं है अपितु वास्तविकता है, और वास्तविकता से मुंह फेरना सबसे बड़ी मूर्खता होती है। अपने ऋषियों के मिटे हुए कृतित्व और व्यक्तित्व को स्थापित करना इतिहास की शानदार सेवा करने के समान होगा । हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास कि इससे बढ़कर कोई पवित्र सेवा नहीं हो सकती कि उसकी गंगा जिन-जिन घुमावदार घाटियों से निकलकर आई है उसके यात्रापथ के प्रत्येक मोड़ को एक स्मारक के रूप में स्थापित कर हम हृदय मंदिर में सजा लें। जब इन मोड़ों पर हम अपने कपिल जैसे आचार्य को बैठा हुआ देखेंगे अर्थात सजाकर इतिहास की एक शानदार प्रस्तुति संसार को देंगे तो मिटा दिया गया इतिहास भी जीवंत हो उठेगा और मां भारती की जय जयकार कर हमारा ही अभिनंदन करने लगेगा। तब हम इतिहास को सजाएंगे नहीं बल्कि इतिहास रचाएंगे और इतिहास स्वयं हमको अभिनंदित कर अपने अंक में समाहित कर लेगा। इतिहास के इस गौरवशाली पल को देखना अभी उस प्रत्येक भारतीय के लिए शेष है जो भारत के वैभव और गौरव को पूर्णतया सम्मानित होते देखने के लिए स्वाधीनता के पहले दिन से ही लालायित रहे हैं।


इतिहास का रचना शेष है , सजना है विशेष।
वैभव - गौरव देखकर, खुशी मनाये देश।।


सचमुच उन लोगों की बुद्धि पर तरस ही आता है जो वास्तविकता को भी सांप्रदायिकता के साथ जोड़कर देखते हैं। चार्ल्स डार्विन की मान्यता थी कि मनुष्य किसी तथाकथित अलौकिक शक्ति या ईश्वर की उपज नहीं है, इसके विपरीत वह अपने वर्तमान स्वरूप में समुद्र और पृथ्वी पर बिखरे विभिन्न जीवों के लाखों वर्ष के चरणबद्ध विकास का परिणाम है। अपने वर्तमान स्वरुप तक पहुंचे मनुष्य के बारे में चार्ल्स डार्विन का यह सिद्धांत किसी भी वैज्ञानिक के द्वारा नकारा नहीं गया। फलस्वरूप यह मान्यता स्थापित हो गई कि मनुष्य कभी बंदर था और धीरे-धीरे विभिन्न चरणों को पार करते हुए वह आधुनिक मानव के रूप में हमें दिखाई देता है।
चार्ल्स डार्विन की इस मान्यता के अनुसार जिस प्रकार रेल अपने पहले इंजन और डिब्बा के स्वरूप और अस्तित्व को गंवाकर धीरे-धीरे वर्तमान स्थिति तक पहुंची है, उसी प्रकार मनुष्य भी विभिन्न चरणों को पार करते हुए वर्तमान स्थिति तक पहुंचा है।


डार्विन की थ्यौरी की निस्सारता


वास्तव में चेतन आत्मा को धारण करने वाले मनुष्य या किसी भी प्राणी के विकास का यह कोई सटीक उदाहरण नहीं है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि रेल एक भौतिक आविष्कार है जिसमें रेल का पहला इंजन यदि अस्तित्व विहीन हो गया तो उसके स्थान पर धीरे-धीरे दूसरा फिर तीसरा और इस प्रकार छठी सातवीं पीढ़ी का इंजन अपना स्थान ले सकता है। यह इसलिए भी संभव है कि रेल को बनाने वाला मनुष्य है। जिससे गलती होना संभव है। मनुष्य का ज्ञान धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। परंतु परमेश्वर का ज्ञान सदा पूर्ण रहता है। योनियों का निर्धारण करना मनुष्य का काम नहीं है । वह परमेश्वर का काम है । परमेश्वर ने सृष्टि प्रारंभ में जिसे बंदर बनाया ,उसकी संतान सृष्टि के अंत तक बंदर ही रहेगी। वह धीरे-धीरे अपना परिवर्तन कर बंदर से मनुष्य नहीं बन सकती। परमेश्वर के ज्ञान विज्ञान से शिक्षा और प्रेरणा लेकर जब मनुष्य कुछ बनाने के लिए आगे बढ़ता है तो उसके ज्ञान के प्रारंभिक चरण में कुछ कमी या दोष रह जाना स्वाभाविक है। जिन्हें वह अपने बौद्धिक चिंतन से अगली पीढ़ी में धीरे-धीरे दूर करने का प्रयास करता है। जैसा कि उसने रेल का पहला इंजन बनाकर उसकी कमियों को इंजन की अगली पीढ़ियों में दूर करने का प्रयास करके दिखाया है।
मानव के आविष्कार में विकास की संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं। पर इस चराचर जगत को बनाने वाली सत्ता ईश्वर है, जिससे सृष्टि के बनाने में किसी प्रकार की चूक नहीं हो सकती। बात स्पष्ट है कि जो जीव सृष्टि के प्रारंभ में जैसा बना दिया गया था वैसा ही आज है और वैसा ही सृष्टि के समाप्त होने तक रहेगा। अतः मनुष्य के बंदर से मनुष्य बनने की कहानी झूठ पर आधारित है।


कपिल मुनि का सिद्धांत


आज के चार्ल्स डार्विन के विकासवाद से हजार गुणा उत्तम सिद्धांत हमारे कपिल मुनि का है। जिन्होंने सांख्य दर्शन की रचना की। इस दर्शन में उन्होंने अपने बुद्धि बल और योग बल से संसार का सबसे उत्तम विकासवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया है। कपिल जी के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति अर्थात सृष्टि के विकासवाद के लिए आवश्यक 25 मूल तत्त्व होते हैं । मूल तत्वों में प्रकृति प्रथम है। कपिल मुनि ने बहुत ही सहज ,सरल परंतु वैज्ञानिक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। जिसके पीछे पूरा बुद्धिवाद कार्य कर रहा है। ये पच्चीस तत्त्व हैं- प्रकृति, पुरुष, महत् (बुद्धि), अहंकार, पंच ज्ञानेन्द्रियां (चक्षु, श्रोत, रसना, घ्राण, त्वक्), पंच कर्मेन्द्रियां (वाक्, पाद, पाणि, पायु, उपस्थ), मन, पंच- तन्मात्रा (रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श) पंच-महाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश)। पुरुष का तात्पर्य “आत्मा” से है।
सांख्य दर्शन के व्याख्याकारों का कहना है कि इस दर्शन का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त “त्रिगुण सिद्धान्त” है । इसमें मनुष्य के 3 गुणों का वर्णन है ,यथा 1.सतोगुण (सदाचार,सत्य, विवेक, सौन्दर्य और सद्भावना आदि) , 2.रजो गुण (वासना,हिंसा, स्फूर्ति, उग्रता, क्रियाशीलता इत्यादि ) तथा 3.तमो गुण (मूर्खता , उदासी, अप्रसन्नता आदि) । प्रकृति की अविकसित अवस्था में ये तीनों गुण समान परिमाण में होते हैं; परन्तु जैसे-जैसे सृष्टि का विकास होता है,तीनों में से एक गुण अधिक प्रभावशाली हो जाता है और उनके अनुसार ही आचार्य कपिल मनुष्य सृष्टि की व्याख्या करते हैं। इस त्रिगुणात्मक सिद्धांत ने भारतीय जीवनशैली एवं विचारधारा को अनेक रूपों में प्रभावित किया है।’
ऋषि कपिल के विकासवाद का मानना है कि चेतन पुरुष के संयोग से प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न होता है, सत्व, रज और तम त्रिगुण की साम्य अवस्था में परिवर्तन होता है । इसके पश्चात गुण में विषमता आती है । बस यह विषमता ही सृष्टि है। साम्य अवस्था ही प्रलय है।


फादर लैमैत्रे कहते हैं....


सृष्टि के आरंभ को लेकर खगोलविद गणितज्ञ और भौतिकी के प्राध्यापक फादर लैमैत्रे ने 1927 के लगभग यह सिद्धांत रखा कि आकाश गंगाएँ एक दूसरे से दूर जा रही हैं । उन्होंने यह सिद्धांत रखा कि इस ब्रह्माण्ड का आरम्भ 13.8 बिलियन वर्ष पूर्व महाविस्फोट के साथ हुआ। तब से यह निरन्तर बढ़ रहा है। जब सांख्य दर्शन का आचार्य इस सृष्टि की उत्पत्ति को क्षोभ से उत्पन्न हुआ मानता है तो वह महाविस्फोट अर्थात big-bang-theory की ओर ही स्पष्ट संकेत करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आचार्य कपिल के क्षोभ के सिद्धांत को लेकर ही बिग बैंग थ्योरी बनाई गई।
अब बात स्पष्ट हो जाती है कि जब बिग बैंग थ्योरी के बारे में आचार्य कपिल बहुत पहले ही घोषणा कर चुके हैं और उसे आज का विज्ञान स्वीकार कर रहा है तो आचार्य कपिल के सांख्य दर्शन और तत्संबंधी सिद्धांतों को ही सरल हिंदी भाषा में बच्चों को पढ़ाना और यह बताना कि सृष्टि का उत्पन्न होने का क्रम सांख्य दर्शन में वर्णित सिद्धांत के अनुसार ही आगे बढ़ा, समय की आवश्यकता है। ऐसे में चार्ल्स डार्विन की हमें आवश्यकता कहां रह जाती है?
जो लोग चार्ल्स डार्विन के अज्ञानताजनित सिद्धांत को पढ़ाते रहने की वकालत कर रहे हैं और इसमें हिंदुत्व की सांप्रदायिकता को खोज रहे हैं उन्हें अपनी मूर्खतापूर्ण धारणाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए।
भारत सत्य का उपासक देश रहा है । इसके ऋषियों के सिद्धांतों की काट संसार का कोई भी वैज्ञानिक ना तो कर सका है और ना कर पाएगा। कुल मिलाकर यह बात बड़े गर्व के साथ कही जा सकती है कि चार्ल्स डार्विन का पाठ्यक्रम से विदा होना स्वागत योग्य था। हमारा केंद्र सरकार से अनुरोध रहेगा कि वह चार्ल्स डार्विन के स्थान पर अपने ऋषि कपिल को स्थापित करें।
हिंदुत्व की समर्थक होने का दावा करने वाली मोदी सरकार को इस दिशा में निर्भीकता के साथ आगे बढ़ना चाहिए। सारा देश उसकी इस प्रकार की निर्भीकता का स्वागत करेगा।
अब समय आ गया है जब सब देशवासियों को यह कह देना चाहिए कि हमें चार्ल्स डार्विन नहीं आचार्य कपिल की आवश्यकता है। अनेक षड़यंत्रकारियों के छल और प्रपंच के चलते यदि इतिहास मिट रहा है तो क्या हम इतिहास को मिट जाने दें, हमारा उत्तर है 'कदापि नहीं।'

( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)
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